Monday, 8 April 2019

आज यह मन

आज यह मन
ज्वार सा उठकर अपना आक्रोश बहा दे
भूकम्प सा डोलकर अपनी बेचैनियाँ जता दे
या फिर फटकर ज्वालामुखी सा
भीतर के सारे गुबार निकाल दे।

कुछ तो हो
कि जो हुआ या हो रहा है
वो न हो
कुछ ऐसा हो
जो होना चाहिए!

उबल रहा है भीतर ही भीतर
आज बहुत भरा भरा है मन
और रिक्त होना चाहता है।
अपने आँसुओं से नहीं
अपनो के प्रेम और विश्वास से
सिक्त (तर/भीगा हुआ) होना चाहता है।

जानती हूँ जो चाहे वो ही हो
ये मुमकिन नहीं होता
पर क्या करूँ
ये मैं जानती हूँ मन नहीं
वो सब में से हट जाना चाहता है।

सबके
अतिरिक्ति होना चाहता है
नहीं सुनता नहीं समझता
बस रिक्त होना चाहता है
हाँ! सिक्त होना चाहता है।

प्रीति सुराना

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