आज यह मन
ज्वार सा उठकर अपना आक्रोश बहा दे
भूकम्प सा डोलकर अपनी बेचैनियाँ जता दे
या फिर फटकर ज्वालामुखी सा
भीतर के सारे गुबार निकाल दे।
कुछ तो हो
कि जो हुआ या हो रहा है
वो न हो
कुछ ऐसा हो
जो होना चाहिए!
उबल रहा है भीतर ही भीतर
आज बहुत भरा भरा है मन
और रिक्त होना चाहता है।
अपने आँसुओं से नहीं
अपनो के प्रेम और विश्वास से
सिक्त (तर/भीगा हुआ) होना चाहता है।
जानती हूँ जो चाहे वो ही हो
ये मुमकिन नहीं होता
पर क्या करूँ
ये मैं जानती हूँ मन नहीं
वो सब में से हट जाना चाहता है।
सबके
अतिरिक्ति होना चाहता है
नहीं सुनता नहीं समझता
बस रिक्त होना चाहता है
हाँ! सिक्त होना चाहता है।
प्रीति सुराना
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