Tuesday, 9 April 2019

उम्मीद के अंकुर

उम्मीद के अंकुर

पंद्रह-बीस दिन से राधिका की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगी थी। सबका खयाल रखना भी उसको चिड़चिड़ा सा कर देता था। न समीर न बच्चों से साझा करती की उसे कैसा महसूस हो रहा है। बस उसका कमरा और दिन भर अकेले में तकिया भिगोते बीत रहे थे दिन।
समीर को पंद्रह दिनों के लिए व्यावसायिक यात्रा पर जाना था और बच्चे पढ़ाई के लिए शहर में रहते थे। समीर के जाते ही मानो राधिका को और भी आज़ादी मिली अब तो खाने की ज़िद भी कोई नहीं कर रहा था। फ्रिज में रखी शिमला, मिर्च, टमाटर, गाजर और सब्जी की टोकरी में पड़े आलू प्याज़ आदि भी खराब होने लगे थे। लक्ष्मीबाई जब भी पूछती कुछ बनाने के लिए तो राधिका मना कर देती सिर्फ चाय-कॉफी और नीबू पानी में कई दिन निकाल दिये।
लक्ष्मीबाई कई सालों से राधिका के घर काम कर रही थी उसने कठिन परिस्थितियों में भी राधिका को इतना निराश नहीं देखा था। काम कुछ नहीं रहता था तो दिनभर कोई न कोई अलमारी खोलकर साफ करने लगती। एक दिन राधिका उठी तो किचन में झाँक लिया। अजीब सी गंध महसूस हुई तो लक्ष्मीबाई से कहा आज कोई अलमारी नहीं फ्रिज साफ कर लेना और सारी सब्जियाँ बाहर डाल देना। ये कहकर वापस अपने कमरे में आ गई।
कभी खाया कभी नहीं और पंद्रह दिन यूँ ही गुज़र गए। समीर लौटा तो लक्ष्मीबाई घर जा चुकी थी। राधिका खुद उठी और किचन में पानी लेने को गई। ताज़ी सब्जियों की हल्की हल्की महक महसूस हुई पर कुछ समझ नहीं आया। फिर चाय बनाते-बनाते उसकी नज़र किचन के बाहर बरामदे में पड़ी। एक बड़ी सी चादर गीली करके कुछ ढका हुआ था। समीर को चाय देकर उत्सुकता से उसने चादर हटाई।
बहुत खूबसूरत नजारा था। घर की छोटी-छोटी दवाइयों की डब्बियों, टूटे हुए मग और कुछ प्लास्टिक के टब पूरे प्लेटफॉर्म पर जमे हुए थे जिनमें कुछ में अंकुर निकल आए थे कुछ में पत्तियां भी और कुछ तो दिख भी इतने खूबसूरत रहे थे कि मन मचल उठा।
दूसरे दिन राधिका बहुत दिनों बाद जल्दी उठ गई और नन्हे अंकुरों को स्प्रे वाली बॉटल से सींचने लगी। समीर भी उसमें यह सकारात्मक बदलाव देखकर खुश था।
लक्ष्मीबाई समय पर काम पर आई तो आते ही राधिका ने आवाज़ दी और पौधों के बारे में पूछा। उसने बताया उस दिन आपने सब्जियाँ फेंकने को कहा था हम लोग घर में सब्जियों के डंठल और बीज टूटे फूटे बर्तनों में डालकर गीले कपड़े से ढक देते हैं और कुछ दिन बाद वो ऐसे ही उग जाते हैं तो कुछ को आँगन में बो देते हैं कुछ को पका लेते हैं। आपने सब्जी फेंकने को कहा पर बीज तो अच्छे थे इसलिए मैंने बो दिए।
राधिका समीर की तरफ देखकर मुस्कुराई। लक्ष्मीबाई के जाने के बाद समीर बोला देखा फेंकने योग्य सब्जियों में भी उम्मीद के अंकुर पनप सकते हैं अगर चाह हो। बस इसके बाद समीर को कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। क्योंकि राधिका के मन में उम्मीद के अंकुर फूट चुके थे।

डॉ. प्रीति सुराना

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