सुनो!
शायद
जब से खुद को जाना
तुम्हे लिखा
तुम्हे जीया
याद भी नहीं
जाने कब से,...
जीवन की हर अनुभूति
सुख हो दुख हो
हार हो जीत हो
प्रेम हो विरह हो
तकरार हो प्यार हो
नजदीकियां हो दूरियाँ हो,
हर एहसास
जो जीया
जो दिल ने चाहा
या परिवेश में घटते देखा
या किस्से कहानियों में पढ़ा
या मेरे अवचेतन ने गढ़ा
जो गढ़ा
सचमुच वो पात्र यदि तुम हो
तो जान लो सिर्फ इतना
खुद से ज्यादा मैं तुम्हे
मुझसे ज्यादा तुम मुझे
समझते हो
कुछ भी संभव है
जीवन मरण किसी के हाथ में नहीं
मनचाही परिस्थितियाँ भी साथ में नहीं
समाज जिस पतन की ओर जा रहा
आभासी सुखों से जीवन को भरमा रहा है
विश्वास और रिश्तों की नींव को हिला रहा है
फिर भी यकीनन
अवचेतन से साकार हुआ वो पात्र
जो सुनता है, समझता है सबकुछ
फासलों से उसका बहुत फासला है
जो तन में नहीं मन में नहीं जीवन में नहीं
वो बसता है आत्मा में,...
सुनो
सुन रहे हो न
आत्मा से परमात्मा तक
सिर्फ तुम
कैसा फासला
कैसी दूरियाँ,....
डॉ प्रीति सुराना
वाह ! कोई दूरी नहीं, कोई फासला भी नहीं..जीवन के साथ पल-पल घुलामिला है वह..
ReplyDeletesundar bhaaw ! badhai !
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDelete