Monday, 10 September 2018

दोगला समाज

दोगला समाज

       हमेशा खूबसूरत परिधान में लिपटी रहने वाली सृष्टि से सप्ताहांत में मिलती है तृप्ति अकसर।
       सृष्टि के लिए तृप्ति वो आईना है जिसके सामने बिना लागलपेट या सजे धजे जैसी है वैसी ही होती है।
भीड़ से अलग ये दोस्ती का रिश्ता सालों से दोनों सखियाँ।
       इस इतवार तृप्ति जब सृष्टि से मिलने गई तो जाने क्यों उसे सृष्टि सहज नहीं लगी।
       बहुत पूछने पर दाहिने पैर का घाव दिखाया और अब उसके सामने ही कुरेदने लगी।
       तृप्ति ने झट से उसका हाथ झटका और चिल्लाई :- पागल ये क्या कर रही है डाइबिटीज की मरीज है ऐसे कुरेदकर नासूर बना लेगी तो जान से जाएगी। अकेली रहकर ये दर्द सहेगी कैसे। थोड़ा समय दे घाव भर जाएगा। संभाल खुद को।
         सृष्टि फफक कर रो पड़ी और रोते रोते बोली। सारे परहेज करती हूँ तृप्ति ये तू भी जानती है। पर मेरे अकेलेपन में बेवजह शक्कर घोलने की कोशिश ने इस जीवन को नासूर बन दिया है। ये ज़ख्म बहुत टीसते हैं, खाज होती है, जलन होती है, पीड़ा होती है। दूसरों की मिठास से बने नासूर के दर्द से छुटकारा ये हमेशा छुपाकर रखे जख्मों के नासूर बन जाने से ही मिलेगी।नहीं सह सकती अब और कुछ भी।
         सतीश के प्रेम को शक का कीड़ा इसी खूबसूरती के कारण लगा था। मुझे छोड़कर जाने के बाद उसने पलटकर भी नहीं देखा कि उस कीड़े ने कितने दंश दिये और कितने घाव। डायबिटीज सिर्फ शरीर को नहीं अकेलेपन में लोगों की घिनौनी सहानुभति से हुई डायबिटीज मेरे वजूद को गला रही है।
           ये कहकर वो इस तरह तड़पकर रोई की तृप्ति से देखा न गया। सोच रही थी कैसे निकाले सृष्टि को इस दर्द से बाहर। बिल्कुल सच है कि अकेलेपन के दर्द को नासूर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता ये दोगला समाज ।

प्रीति सुराना

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