'हिन्दी का मान'
पाठशाला के पुस्तकालय की मेज पर दो किताबें आजूबाजू रखी रखी बोर हो रही थी।
एक थी हिन्दी वर्णमाला, दूसरी थी अंग्रेजी वर्णमाला।
हिन्दी की किताब से चुप रहा नहीं गया तो उसने अंग्रेजी की किताब से बातचीत का सिलसिला शुरू किया।
नमस्ते मित्र कैसी हो?
अंग्रेजी वर्णमाला की किताब ने इतराते हुए जवाब दिया 'फाइन, थैंक्स & यू??
हिन्दी अचंभित थी समझ तो आ रहा था कि अंग्रेजी क्या कहा पर 4 शब्दों में सवाल जवाब और आभार तीनों ?
हिन्दी की किताब ने खुद को कमतर आंकते हुए धीरे से कहा। मैं ठीक हूँ बस अपनी बारी का इंतज़ार कर रही हूँ कि कब कोई शिक्षक आए और किसी कक्षा में मुझे पढ़ाए। उकता रही थी तो सोचा तुमसे बात कर लूँ।
सच तुम कितनी पतली हो।
कम शब्दों में सबकुछ समेटे हुए हो ।
5 स्वर और 21 व्यंजन में तुम्हारी पूरी दुनिया है और सौभाग्यशाली हो कि पूरी दुनिया पर राज करती हो। कैसे कर लेती हो इतना?
अब अंग्रेजी की किताब थोड़ी सहज हुई और इतराना छोड़कर अबकी बार हिन्दी में बोली बहन तुम खुद को कम मत समझो सच तो ये है तुम संस्कृत और संस्कृति की बेटी हो। तुम में तो भाव, अर्थ, विन्यास और विकास के साथ साथ हर बोली और भाषा को खुद में समाहित करने की क्षमता है। दरअसल मेरे एक भी अक्षर तुम्हारे सहयोग की बिना उच्चारित भी नहीं हो सकते। ए से लेकर जेड तक सभी अक्षरों को बोल कर देखो, तुम्हें समझ आ जाएगा कि तुम्हारा अंश मात्र हूँ मैं।
मैं छोटी हूँ, व्याकरण सीमित है और कई जगह मेरे एक ही शब्द में काम चल जाता है, इसलिए मनुष्य ने अपनी सहूलियत के लिए मुझे इस्तेमाल किया और राजनीति ने हथियार बना लिया जिससे मेरा विस्तार रुक गया बस प्रचार ही हुआ। जबकि तुम्हारे एक एक शब्द के कितने ही पर्यायवाची हैं, तुम रोचक हो।
सब से बड़ी बात तुमने अनेक बोलियों और भाषाओं को जन्म दिया, अनेक बोलियों और भाषाओं को खुद में समाहित किया। तभी तो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति भारत माता की तरह ही तुम्हारा भी सम्मान करती है। अंग्रेजी तो केवल काम करने की सहूलियत के लिए इस्तेमाल होती है।
बहन हम दोनों ही भाषाएँ हैं पर तुम वृहद और सहृदय हो तुममें सागर सी विशालता है। मैं मात्र नदी हूँ मेरा उद्गम और संगम भी मुझे ठीक से मालूम नहीं। मेरा मौलिक निवास भी निश्चित नहीं। यूँ तो अंतरराष्ट्रीय कहलाती हूँ पर मेरा कोई नियत आवास नहीं। मैं केवल व्यापार के लिए उपयोगी बनकर रखगे जबकि तुम अपने व्यवहार के लिए सम्माननीय हो। केवल व्यापार और व्यवहार नहीं अपितु विश्वगुरु बनने की हर योग्यता तुममे है और सबसे बड़ी बात जिस संस्कृति ने तुम्हें रचा वहाँ की मिट्टी में रची बसी हो तुमपर हर भारतीय अभिमान करता है।
कभी कभी तो ईर्ष्या होती है तुमसे की तुम भाषा होकर भी माँ हो और मैं सिर्फ और सिर्फ भाषा।
हिन्दी की किताब अपने आँसू नहीं रोक पा रही थी। अंग्रेजी की किताब के प्रति प्रेम और सम्मान दोनो ही बढ़ गए।
दूसरी तरफ ये भी विचार कौंधा की मुझ पर अभिमान कर रहा मेरा ही भारत मुझे राष्ट्रभाषा न बना सका और मेरी बहन अंग्रेजी भाषा मुझे इतना सम्मान दे रही।
तभी पुस्तकालय में शिक्षकों का प्रवेश हुआ।
एक ने कहा 'अंग्रेजी की किताब रहने दो , वो मि. वर्मा ही पढ़ाएँ। मुझे तो हिन्दी पढ़ाने में ही मजा आता है, किसी भी कक्षा में बिना किताब के भी सहजता से पढ़ा सकता हूँ क्योंकि वो मेरी मातृभाषा है।
दूसरे ने कहा सही कहते हो भाई अपनी भाषा में सब सहज है और इस उम्र में किताब से सीखकर पढना पढ़ाना मेरे भी बस का काम नहीं।
पहले ने कहा ठीक है मि. वर्मा के आने रॉक अंग्रेजी की कक्षा स्थगित ही रखते हैं और हिन्दी की कक्षाएं सुविधानुसार सभी कक्षाओं में अन्य शिक्षकों की सहायता से जारी रखते हैं।
ये कहकर अंग्रेजी की किताब को छोड़कर शिक्षक हिन्दी की किताब लेकर जाने लगे।
हिन्दी और अंग्रेजी की किताबें एक दूसरे को उदास होकर देखने लगी मानों मौका मिलता तो अभी गले मिलकर रो पड़ती।
अंग्रेजी की किताब इसलिए रोना चाहती थी कि सब से सिर्फ काम के लिए पढ़ते हैं। और हिन्दी की किताब अपनी मूर्खता पर कि कुछ अज्ञानियों के कारण वह अपने ही महत्व को कम आँक रही थी, आज अंग्रेजी ने मुझे मेरी अहमियत का एहसास न कराया होता तो मैं कुंठित होकर ही मर जाती।
प्रीति सुराना
सार्थक आलेख.
ReplyDeleteसुंदर विचार प्रस्तुत करती लेखनी.
बेकरारी से वहशत की जानिब