Saturday, 25 August 2018

*वर्तमान साहित्य में पुस्तिकाओं का महत्व*

*वर्तमान साहित्य में पुस्तिकाओं का महत्व*

         आज व्यावसायिकता के दौर में एक पाठक, रचनाकार, संपादक, समीक्षक और  प्रकाशक के लिए पुस्तकों का महत्व होते हुए भी अनेकानेक ऐसी समस्याएँ है जो पुस्तकों के महत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती हुई महसूस होती हैं।
         इसी विषय पर एक लंबे विमर्श के बाद कुछ बातें विशेष रूप से चिंतन में आई हैं जो अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रही हूँ।
*पाठक वर्ग की नज़र से:-* भारत साहित्य से समृद्ध पुरातन काल से रहा है और ये हमारा सौभाग्य है कि हम इस समृद्ध देश के वासी हैं। बड़े-बड़े ग्रंथों से लेकर, विज्ञान और गणित के अनेक सिद्धान्तों, काव्य एवं कथाओं के गूढ़ और गहनता भरे सूत्र और सिद्धान्तों की अनेक मोटी-मोटी किताबें इसी देश की देन है। पर तब पाठक भी गुरुकुल परंपरा से होते थे वहीं से शिक्षित और प्रशिक्षित भी।
      वर्तमान परिवेश में जब जीवन भागमभाग के दौर में है पाठक को चाहिए सारगर्भित और सरलतम पाठ्य सामग्री चाहे वो पढ़ाई के लिए हो या मनोरंजन के लिए, नैतिक शिक्षा की बात हो या राजनीति या अर्थशास्त्र। ऐसी सामग्री पढ़ने के लिए चाहिए जो कम समय मे कम शब्दों में अधिक और अच्छी व ज्ञानवर्धक या उद्देश्यपरक हो। जेब के लिए मितव्ययिता अच्छे पाठक की पहली आवश्यकता होती है ताकि अधिक से अधिक पाठ्य सामग्री जुटा सके। ऐसे में छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का महत्व स्वतः ही बढ़ जाता है। ई बुक के रूप में भी कम पृष्ठों की किताबें सहेजने में न फोन पर भारी पड़ती है न जेब पर।
*रचनाकार की नज़र से :-* एक रचनाकार के लेखन का पहला उद्देश्य होता है लेखन से स्वान्तः सुख तो हो ही साथ ही अधिक से अधिक पाठकों तक अपनी सोच और भावनाओं को पहुंचा सके। सोशल मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हुए फेसबुक, ट्विटर,  व्हाट्सअप , ई पत्रिकाएं, ई समाचार पत्रों की भरमार कर दी। जितना आसान अपनी कला को विश्व स्तर पर प्रचारित करने का माध्यम हुआ उतना ही सरल हुआ साहित्य की चोरी, फेरबदल और साहित्य के स्तर में गिरावट। क्योंकि बटन दबाते ही एक पोस्ट के रूप में रचनाएँ बिना रचनाकार के विश्वभ्रमण करके खुद रचनाकार तक पहुंच जाए तो भी अचरज नहीं। ऐसे फिर एक लगाम लगती है रचनाकारों की रचनाधर्मिता पर और सलाह दी जाती है कॉपीराइट करवाया जाए, पर जो रोज कुछ लिखता हो क्या उसके लिए ये सहज प्रक्रिया होगी? ऐसे में ब्लॉग लेखन, निजी वेबसाइट और ई बुक सबसे सस्ते और उपयुक्त साधन होते हैं पर इसके लिए तकनीकी ज्ञान के अभाव में प्रौढ़ होती पीढ़ी संकोच कर जाती है ये सोचकर कि उपयोग करना उनके लिए मुश्किल होगा। एक दूसरे को देखकर हर किसी के भीतर किसी न किसी तरह अभिव्यक्ति का अंकुरण होने लगा है ऐसे में बाजार में प्रसिद्ध प्रकाशकों ने मूल्यवृद्धि कर दी ताकि अच्छे रचनाकारों को प्रकाशित कर सके जो अल्प से अल्पतम होते चले जा रहे हैं क्योंकि किताबों का क्रय-विक्रय कम आदान-प्रदान ज्यादा होने लगा है लेकिन ऐसे में आम जन जीवन ऐसे लेखन को पढ़ने के लिए सहज न जेब से हो पाता न मन से।
         नवांकुर और मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति वाले रचनाकारों को नियमानुसार कम से कम 96 पेज और हार्ड बाइंडिंग के नियमों में बांधकर सीमित करने का भी कारण स्पष्ट नहीं सिवाय इस बात के कि हार्ड बाइंडिंग की किताबों को पुस्तकालयों में रख रखाव में आसानी होती है। ऐसे में उठते हैं चंद सवाल कि पुराने महाकवियों की अनेकानेक कृतियां न्यूनतम पृष्ठों पर टंकित भी प्रसिद्धि पा जाती थी, चाहे सामान्य से आवरण पृष्ठ हो या पन्नो की गुणवत्ता या साज सज्जा कम हो आज तक समृतियों में भी है और मांग में भी तात्पर्य यह कि लेखन में दम हो तो पाठकों के बीच जगह बनना तय है किताब के पन्नो की गिनती अधिक हो या कम।
           हर रचनाकार 25-50 हज़ार रुपये खर्च करके स्व प्रकाशन नहीं करवा पाता, ऐसे में साझा संकलनों की भीड़ और व्यवसायिकता ने रचनाकारों को मोहित करना शुरू किया उसपर से सम्मान योजनओं का प्रभाव भी कम नहीं होता।
        एक रचनाकार 5-10 पेज के लिए  2000 से 5000 के बजट में साझा संकलनों में जुड़ने लगा, अच्छा भी था यदि ये संकलन सहभागिता से बनते किन्तु चयनित रचनाओं के लिए होते किन्तु जो जितना खर्च कर सकता है उतने संकलनों में स्थान पा सकता है पर सबके लिए संभव नहीं था। धीरे-धीरे ये साहित्य कम, दाम से काम का पर्याय बनकर अधिक रह गया।
अधिक से अधिक 15-20 संकलनों में आते आते एक रचनाकार प्रतीकचिन्हों की भरमार के बीच 50 हज़ार से लाख रुपये गवां चुका होता है किन्तु खुद भीड़ में खोकर रह जाता है और रचनाओं की गुणवत्ता में भी कमी आती जाती है।
         ऐसे में इसी स्वप्रकाशन के पर्याय के रूप में लघुपुस्तिकाएँ आकर्षित करती हैं क्योंकि कम से कम रचनाकार का लेखन अपनी रुचि का पाठकवर्ग पा लेता है न्यूनतम मूल्य में। इन्हीं रचनाओं से स्वआकलन का अवसर और गुणवत्ता में सुधार, समीक्षाओं के माध्यम से भी किया जा सकता है। हर आने वाली पुस्तिका पहले से बेहतर हो सके। कम से कम मूल्य में अधिक से अधिक कृतियाँ परिचय को भी मजबूत करती है, पाठकों तक पहुंचने में भी सहज होती है। रचनाकारों और पाठकों की जेब और फ़ोन की मेमोरी के लिए भी सहज और वहन करने में समर्थ होती है। *जिन्हें कमी नहीं वो कुछ भी खरीद सकते हैं किंतु जो बजट बनाकर निर्वहन करते हैं उनके लिए ये बहुत ही उत्तम समाधान है।*
*संपादक की नज़र से:-*  बहुत मोटी किताबों का संपादन भी मुश्किल होता है। दायित्व संपादक के लिए भी उबाऊ और क्लिष्ट हो तो गुणवत्ता या शुद्धता में भी कमी आती है। और अंततः ये केवल काम का हिस्सा बनकर रह जाता है और रुचि से किया काम और विवशता में किया काम अलग अलग परिणाम ही लाता है ये सर्वविदित है।
*समीक्षक की नज़र से:-* एक समीक्षक की भूमिका कुम्हार की तरह होती है। एक थाप भी गलत पड़ी तो घड़े का आकार विकृत हो सकता है। ऐसे में छोटी पुस्तिकाओं को पूरी तरह पढ़कर समीक्षा करने में आसानी भी होती है और कम में सुधार कर आगामी को उत्तमोत्तम स्वरूप देना रचनाकार के लिए भी सरल होता है।
*प्रकाशक की नज़र से:-* एक प्रकाशक के लिए एक किताब को बनाना शून्य से शिखर जैसा काम होता है, आवरण, टंकण, भूमिका, isbn, अनुक्रमणिका, पाठशोधन जैसी अनेक प्रक्रियाओं के बाद शुरू होती है प्रिंटिंग की प्रक्रिया, जो बड़ी मशीनों की अधिकाधिक लागत और पृष्ठ संख्या के आधार पर बाइंडिंग और किताब की कटिंग आदि से लेकर अंत तक अनेक बोझिल प्रक्रियाओं और कर्मचारियों की मजदूरी की लागत के कारण मूल्य में वृद्धि दर वृद्धि का कारण बनती है। ऐसे में प्रकाशक का दोष भी गौण हो जाता है। जिस जगह से प्रकाशन हो रहा है वहां सुविधाओं के साथ साथ कर्मचारियों की उपलब्धता भी अनिवार्य होती है। और वर्तमान में सबसे अधिक कर्मचारियों पर निर्भरता ही कष्टप्रद होती जा रही है जिसके कारण प्रक्रिया कठिनाई भरी लगने लगती है। तब पुस्तिकाओं का प्रकाशन बहुत आसान और सार्थक लगता है जो एक कमरे में रखी मशीन से कम से कम समय मे अधिक से अधिक उत्पादन व कार्यक्षमता बढ़ाता है।
तब महसूस होता है जितनी मोटी पुस्तक उतने कम पाठक, पुस्तकों को खरीद कर पढ़ने का चलन भी रचनाकारों की उदारता और दानशीलता ने कम कर रखा है ।
ऐसे में पतली पुस्तकों की मांग दिन प्रतिदिन बढ़ी है, डिजिटल इंडिया की प्रेरणा से ईबुक, ब्लॉग और वेबसाइट्स ने भी अपनी जगह बनाई है। एक पुस्तक की तरह isbn सहित ईबुक बनवाकर आवश्कतानुसार प्रतियाँ जब चाहें तब छपवाई जा सकती है और यदि बिना मूल्य लिए उपहार में पुस्तक देनी हो तो ईबुक की लिंक उपलब्ध करवाएं ताकि आपको भी अतिरिक्त खर्च वहन न करना पड़े । दूसरी ओर जितने अधिक लोगों तक पहुँचना चाहें घर बैठे अपनी किताब की लिंक भेजें। ये विश्वस्तर तक आपके लेखन को लेकर जाने की क्षमता रखता है।
         खासकर नवांकुरों के लिए ये बहुत उपयोगी है ठीक एलकेजी से लेकर स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट की डिग्री तक सतत खुद की ही गुणवत्ता के साथ मेधावी छात्र बनने की ललक में सीख सीख कर निखरने का और हर कक्षा में उत्तीर्ण होकर अपना और अपनों का नाम रोशन करने का स्वर्णिम अवसर है ये 16- 32 पृष्ठ की पुस्तिकाएँ।
          *सोचें समझें और निर्णय लें* कि भीड़ का हिस्सा बनकर रहना अच्छा है या साहित्य के आकाश में एक छोटे से सितारे के सप्तऋषि मंडल में शामिल होने की गुणवत्ता के लिए खुद को तराशने के लिए कम व्यय में अधिक से अधिकतम परिणाम की अपेक्षा से कार्य करना।
*नोट:- उम्मीद करती हूँ हंस की तरह अपने विवेक से अपने लिए उत्तम मार्ग का चयन आप स्वयं करेंगे क्योंकि सभी की सोच अलग होती है ये अभिव्यक्ति केवल मेरी सोच की है सभी का सहमत होना अनिवार्य नहीं।*

*डॉ प्रीति सुराना*
*संस्थापक:अन्तरा-शब्दशक्ति*
*वारासिवनी (मप्र)*
24/08/2018

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