मैंने तो अब लिख डाला है पत्र तुम्हारे नाम
यादें तड़पाती रहती हैं आकर सुबह शाम
दूर गए हो घर से रोज़ी रोटी की खातिर
मेरे हिस्से में भी तो हैं दुनियादारी के काम
देश विदेश जाने से रोका कब मैंने तुमको
पर साजन मेरे तो तुम ही हो चारो धाम
पैसों की खातिर दूर रहें आखिर कब तक
मंजूर नहीं और चुकाना सुविधाओं के दाम
नहीं चाहिए बिना तुम्हारे मख़मल के बिस्तर
मुझे मिल जाता है आकर तेरी बांहों में विश्राम
जानूं समझूं और मानूं मैं तुम्हारी हर इक बात
पर इस मन के घोड़े की खींचू कैसे लगाम
लिख डाले हैं मैंने पत्र में अपने सब अरमान
काश देख पाते तुम आंखों से छलकते जाम
छोटी चादर साझा करके जी लेंगे जीवन अब
तुम बिन बेमाने लगते हैं सुख के पल तमाम,... प्रीति सुराना
Very Nice Poem !
ReplyDeleteDynamic
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