Saturday, 21 May 2016

उफ़ गरमी!

कोई तो सूरज से पूछे,कैसे सहता है गरमी।
तपती धरती देखी सबने,बोल रहे सब उफ़ गरमी।

रोज सुबह सबसे पहले उठ,सूरज खुद जल जाता है।
जलकर खुद ही इस दुनिया को,रोशन वो कर पाता है।
पाकर उजियारा भी शिकवा,रोज कहें सब उफ़ गरमी।
कोई तो सूरज से पूछे,कैसे सहता है गरमी।
तपती धरती देखी सबने,बोल रहे सब ,..,..,..,..।

धरती के सब आंसू पीकर,बादल में छुप जाता है।
बादल बारिश बन दुनिया को,तब राहत पहुंचाता है।
करते तारीफें बादल की,भूल गए तब वो गरमी।
कोई तो सूरज से पूछे,कैसे सहता है गरमी।
तपती धरती देखी सबने,बोल रहे सब ,..,..,..,..।

तन मन अन्न धन हो या जीवन,सूरज पर आश्रित होता।
पर मानव की आदत ही है,बात बात पर है रोता।
इक दिन भी प्रकृति संचालित हो,संभव नहीं है बिन गरमी।
कोई तो सूरज से पूछे,कैसे सहता है गरमी।
तपती धरती देखी सबने,बोल रहे सब ,..,..,..,..।
प्रीति सुराना

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