प्रीत लेखन ही नहीं जीवन मे मेरा सबसे प्रिय विषय, जिसके मायने कभी ढूंढे ही नहीं। मेरे नाम में ही प्रीत है इसलिए हमेशा यही लगा खुद के मायने समझ लूँ, खुद को ढूंढ लूँ, खुद को जान लूँ उस दिन प्रीत के मायने ढूंढने का मंतव्य पूरा हो जाएगा। सच ये है कि खुद को हर रोज कुछ नया पाती हूँ बिल्कुल प्रेम की तरह।
प्रेम जिसमें जीवन का हर रंग, भावों का हर रस, हर ऋतु, हर काल समाया है। मैं ही प्रीत हूँ और मैं देह नहीं आत्मा हूँ।
देह केवल प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
माँ का मातृत्व, बहन का स्नेह, गुरु का आशीर्वाद, प्रेयसी का आलिंगन, पत्नी का समर्पण, दोस्त का संबल, एक स्त्री का स्त्रीत्व सब कुछ एक ही देह से मिलकर भी अलग-अलग तरह से अभिव्यक्त होता है क्योंकि प्रेम देह से नहीं आत्मा से, मन की गहराइयों से निकलने वाला भाव होता है, मन मे जिस तरह का प्रेम, जिसके लिए प्रेम और जब भी प्रेम उमड़ता है देह उसे उसी रूप में उस पर अभिव्यक्त करती है जिसे हम प्रेम करते हैं।
प्रेम आत्मा का स्वभाव है प्रेम में शृंगार, हास्य, करुणा, क्रोध, उत्साह, भय, घृणा (भी), आश्चर्य, शांति, भक्ति, वात्सल्य में से कोई भी रस और भाव हो, प्रेम जीव या निर्जीव, पशु-पक्षी या इंसान, किसी से भी हो अभिव्यक्ति के दो ही माध्यम होते हैं, "शब्द और स्पर्श"।
शब्द और स्पर्श दोनों ही देह से जुड़े हैं। आत्मा के भावों को आत्मीय तक पहुँचाने के लिए आत्मीय सामने हो तो स्पर्श और दूर हो तो शब्द ही काम आते हैं।
प्रेम देहातीत होता है पर प्रेम को प्रकट करने का माध्यम देह ही होती है चाहे माँ के सीने से लग कर सुरक्षा की अनुभूति हो या प्रेमी के आलिंगन से आत्मिक सुख की पराकाष्ठा प्रेम देहातीत होकर भी देह से परे नहीं हो पाता।
प्रेम
संतुष्टि है
अधूरापन है
खुशी है
दर्द है
मिलन है
विछोह है
सुरक्षा है
भय है
सदेह है
विदेह है
पास है
दूर है
मनोरम है
मनोरोग है
सुनो!
मैं हूँ, तुम हो
हम हैं,..
बस यही प्रेम है
और
ये प्रेम ही है
प्रीति सुराना
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