मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से।
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।
बैठी बैठी गुमसुम सी मैं
जाने क्या क्या गुनती हूँ
जो किसी ने न कहा हो
वो भी अकसर सुनती हूँ
भाव नहीं छुप पाते है मेरे
मनबसिया चितचोर से।1।
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।
मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से।
जब भी मैंने आस छोड़ी
खोने लगी जब हौसला
बेवजह डरने लगी और
खुद से ही बढ़ गया फासला
अंदर से आवाज़ देकर
फिर मन ने डाँटा जोर से।2।
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।
मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से।
फिर संभाला खुद को मैंने
जीना मुझे अपने लिये है
कब आता है वो पोंछने
ये आँसू जिसके लिए है
मैंने सीखा छुपकर रोना
मन के नाचते मोर से।3।
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।
मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से।
एकाकीपन को तो मैंने
अपना साथी मान लिया
मुझसे ज्यादा कोई न मेरा
ये सच भी पहचान लिया
मन मंथन ही मुझे बचाता
बाहर के अवांछित शोर से।4।
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।
मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से।
प्रीति सुराना
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-04-2019)"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312) को पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी
वाह बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteएकाकीपन को तो मैंने
अपना साथी मान लिया
मुझसे ज्यादा कोई न मेरा
ये सच भी पहचान लिया
मन मंथन ही मुझे बचाता
बाहर के अवांछित शोर से।
अप्रतिम।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
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