लगता है जिन्दगी की राह में
अब थोड़ी सी ढलान आई है
ढलते-ढलते महसूस हो रहा है
अब जिंदगी की शाम आई है,
खुशियाँ, उम्मीदें, सपने, अपने
अब सब थोड़े दूर से दिखते हैं
जाने कब कैसे और क्यूँ हुआ
और जिंदगी किस धाम आई है,
जीने की ख्वाहिशें तो बहुत है
राहें मगर अब बहुत सीमित हैं
खुद से ज्यादा अपनों की फिक्र
और बेफिक्री खुद के नाम आई है,
सोचती हूँ ये शाम शबनमी होगी
या आँखों में दबी-छुपी नमी होगी
कितने भँवर से मटकती-भटकती
मानो शहर से वापस गाँव आई है,
अब करें आकलन तो पता चले
यूँ ही जी लिए, खोकर अवसर
या किसी के लिए रत्ती भर भी
ये जिंदगी कभी काम आई है?
डॉ प्रीति समकित सुराना



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