दर्द को तकिये सा
अपने सिराहने रखकर
ख्वाहिशों की सेज पर
अधूरेपन के कांटों की चुभन सहते
खुद से खुद की बातें कहते
सितारों की भीड़ में तनहा रहते
रेत के महल सा धीरे-धीरे ढहते
आँखों की कोरों से सपने बहते
खामोशी से भोर का कर रही हूँ इंतज़ार
क्योंकि
भोर के साथ फिर शुरु हो जाएगा
वही अभिनय-वही दिखावा
हँसी-खुशी-अपने-अपनापन
सफलता-सहजता,.. आदि-इत्यादि,..
सच दिनभर वक्त ही नहीं मिलता
खुद को जीने का,...
चलो जी लूँ, कुछ लम्हे अपने लिए
रात की चादर तले!
डॉ प्रीति समकित सुराना



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