Wednesday 4 November 2020

चिंताएँ ही शेष रही

पीड़ा टिप-टिप बरस रही है, 
मुझसे जो न सही गई।
चिंतन वाले मन में देखो, 
चिंताएँ ही शेष रही।

चुप-चुप सी मैं रहने लगी हूँ,
व्यर्थ निराशा में बहने लगी हूँ,
वो भी अब सब जान गए हैं
बात जो अब तक कही न गई,
पीड़ा टिप-टिप बरस रही है, 
मुझसे जो न सही गई।
चिंतन वाले मन में देखो, 
चिंताएँ ही शेष रही।

खामोशी को सुनने लगी हूँ,
खामोशी से कहने लगी हूँ,
प्यार, भरोसा, उम्मीदों की 
सब आदतें मानों छूट गई,
पीड़ा टिप-टिप बरस रही है, 
मुझसे जो न सही गई।
चिंतन वाले मन में देखो, 
चिंताएँ ही शेष रही।

सपने भी अब ढहने लगे हैं
दुख स्थायी रहने लगे हैं
लड़कर कोई अधिकार मिला कब
ये बात भी अब मैं समझ गई,
पीड़ा टिप-टिप बरस रही है, 
मुझसे जो न सही गई।
चिंतन वाले मन में देखो, 
चिंताएँ ही शेष रही।

दूसरों के लिए लड़ जाती थी जो,
सही गलत सब सहने लगी हूँ,
मैं जो थी अब मैं वो नहीं हूँ
मैं कैसे-क्यूँ इतना बदल गई,
पीड़ा टिप-टिप बरस रही है, 
मुझसे जो न सही गई।
चिंतन वाले मन में देखो, 
चिंताएँ ही शेष रही।

डॉ प्रीति समकित सुराना

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