मन के भीतर बैठ जुलाहा
भावों के धागे है बुनता।
आढ़े टेढ़े उलझे सुलझे
धागे कितने रंग-बिरंगे
कोई कैसा कोई कैसा
कोई किसके साथ जंचता
अपने मन से मेल मिलाता
और किसी की कब है सुनता
मन के भीतर बैठ जुलाहा
भावों के धागे है बुनता।
कौन सा ताना कहाँ जुड़ेगा
कौन सा बाना कहाँ खिलेगा
रिश्तों का हर ताना बाना
कितनी बार है बनता मिटता
टूटने की पीड़ा भी सहता
घुट घुट कितने सपने गुनता
मन के भीतर बैठ जुलाहा
भावों के धागे है बुनता।
नित नूतन करने की सोचे
मन ही मन कितना है भुनता
उलझे धागे को सुलझाता
नये कपास के फूल है चुनता
बैठ अकेले झेल झमेले
अपने ही सपनों को धुनता
मन के भीतर बैठ जुलाहा
भावों के धागे है बुनता।
प्रीति सुराना
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