उजियारा
अपने मन की सुनती हूँ,
नित मैं सपने बुनती हूँ।
अनजाने डर का साया,
मन ही मन मैं घुनती हूँ।
बाहर शीतलता है पर,
भीतर-भीतर भुनती हूँ।
देख समय की लीलाएँ,
अपना माथा धुनती हूँ।
दिन का हरकारा आता,
मैं उजियारा चुनती हूँ।
मूंद पलक के परदों को,
जाने क्या-क्या गुनती हूँ।
प्रीति सुराना
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