प्रतीक्षा
सुकृति ने कुछ देर प्रतीक्षा की कि सुहास उसका पक्ष भी सुनेगा पर कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसे जो कहना था वो कहकर वहाँ से चला गया।
सुकृति ने एक नोट लिखा और सुहास के सिरहाने रख दिया। अपना जरूरी सामान समेटा और गेस्ट हाउस में आ गई।
सुहास शाम को ऑफिस से लौटा तो सुकृति नज़र नहीं आई। सोच कुछ देर में आ जाएगी और पंलग पर लेटते ही उसे सुसाइड नोट मिला जिसमें लिखा था
'अब मैं जीना नहीं चाहती!
इसकी जिम्मेदार मैं खुद हूँ क्योंकि मैंने अपनी आत्मनिर्भरता खोकर निर्भरता स्वीकार की थी।'
सुकृति
सुहास को एक पल में सुकृति के बिना जीवन व्यर्थ लगने लगा। छटपटाहट में सुकृति को घर भर में ढूंढता रहा। अचानक गेस्ट हाउस का दरवाजा खुला दिखा। वो दरवाज़े की ओर भागा और सुकृति को झकझोरता हुआ बोला 'सुकृति तुम मरी नहीं, जिंदा हो तो ये सब क्या था?'
सुकृति ने शांत भाव से जवाब दिया 'ये कब कहा कि मर रही हूँ, बस जीना नहीं चाहती। चलो तुमने ये तो समझा कि 'जीने की ललक को खत्म कर देना भी आत्महत्या ही होता है।'
सुकृति ने खुद को कमरे और दायित्वों तक सीमित कर लिया सुहास आज भी अपनी गलतियों पर पछताने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता।
मौन और नितांत अकेली सुकृति की जिंदा लाश को देखकर खुद को सबकी नजरों में उसकी आत्महत्या का दोषी पाता है।
अंतर्मन से मर चुकी सुकृति के लिए अतीत को बदलना संभव नहीं और सुहास को वर्तमान में किसी संजीवनी की तलाश है पर समझ नहीं पा रहा कैसे ढूंढे वो पल जो मृतप्राय सुकृति को फिर जीवित कर दे।
प्रीति सुराना
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