Tuesday, 23 October 2018

तुम्हारे कंधों पर,..


हाँ!
बार-बार पोंछती हूँ
आँखों की कोरों से छलकते आँसू
क्योंकि नहीं जताना चाहती किसी को भी
अपनी कमजोरियाँ
अपने दर्द और तकलीफें
अपनी जरूरतें और इच्छाएँ,..

नये-नये बनाती हूँ बहाने
अपनी नम आँखें
अपनी भर्राई आवाज़
अपनी बेचैनियाँ
अपनी आशंकाओं
अपनी निराशा को छुपाने के लिये,..

बेशक आज की नारी हूँ
अबला नहीं हूँ
कर सकती हूँ सब कुछ
समर्थ हूँ
सक्षम हूँ
सशक्त भी हूँ सिर्फ जताने के लिए,...

फिर भी ये सच है
मैं औरत हूँ
प्रेम, समर्पण, विश्वास सब कुछ है मुझमें
और मेरी भावनाओं पर नहीं चलता मेरा वश
जब होते हो तुम साथ
मेरे होने को पूर्णता देते हुए,...

और तब तुम्हारे कंधों पर
छलक ही जाते हैं मेरे आँसू,
निकल जाती है मन की बातें
सिसकियाँ, बेचैनियाँ, ख्वाहिशें, सपने,...
तुम्ही बता दो
ये भी प्रेम ही है न???

प्रीति सुराना

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