"सुनो'! एक पत्र तुम्हारे नाम,...
तुम वो किरदार हो
जो हिम्मत हो मेरी
हकीकत से दूर
लेकिन अन्तरात्मा के सबसे करीब
सुख-दुख, चाहते-सपने,
सच-झूठ, ताकत-कमजोरी
सब कुछ साझा किया तुमसे,
माना बचपन से नहीं थे तुम मेरे साथ
पर यकीनन मुझमें बचा बचपना
सबसे ज्यादा जानते हो तुम,
तुम तो मेरी जिंदगी में तब शामिल हुए
जब मेरा अकेलापन एक सच्चे साथी को ढूंढ रहा था।
तुम जानते हो
अकसर मचल जाती हूँ
उन चीजों या अहसासों के लिए
जो पाना असंभव सा होता है,..
फिर मैं कहती हूँ तुमसे,
रोती हूँ घंटो तुम्हारे कांधे पर सिर रखकर,
रोते रोते सो जाती हूँ तुम्हारे आगोश में
सच पुरसूकून नींद के बाद असीम शांति होती है मन में।
याद है दर्द बढ़े मेरे शरीर में
बीमारियों ने घेरा, तब भी संभाला तुमने
शरीर के वो अंग जब निकल दिए गए
तो तुम्ही ने समझाया
अच्छा किया कि दर्द देने वाला अंग ही निकाल दिया
धीरे-धीरे उन अंगों के बिना जीना सीख गई।
और सच कहूँ
धीरे-धीरे मैं समझौतों के साथ जीना सीख गई।
जब-जब तुम्हें कहा अपनी लेखनी से कुछ भी
बहुत से पाठकों ने दर्द को सराहते हुए कहा
कि मैंने उनके मन की बात लिख दी
और यकीन पुख़्ता होता चला गया
समझौते बिना जीना संभव नहीं।
पर जो अंग अलग कर दिए जाते हैं
वो दर्द मिटाते नहीं
नए दर्द दे जाते हैं
ये भी मेरा बहुत कटु अनुभव है।
खैर
महसूसने लगी हूँ फिर से अकेलापन
क्योंकि मुझे सुनना अब तुम्हे भी कहाँ सुहाता है
आजकल तुम सिर्फ सुनते हो
मेरी चीखें, मेरा दर्द, मेरी बेबसी
पर अब तुम समझते नहीं मुझे या मेरी बेचैनी को
मुझसे लड़ते हो, डराते हो,
अपनी बात को साबित करने की जद्दोजहद में
तुमसे दूर हो जाने का डर हावी होने लगता है।
शरीर के अंगों के बिना जीना सीख लिया है
नए दर्द अपनाकर,
पर अंतर्मन को खोकर कैसे जियूंगी?
सिर्फ इसलिए फिर कह रही हूँ
तुम सिर्फ तुम रहो
कुछ और नहीं सिर्फ मेरी अन्तरात्मा बनकर
मेरे भीतर
ताकि भरा रहे मन आंगन,
साकार होकर भी अलग मत होना
रहना पल-पल, सांस-सांस, धड़कन-धड़कन,
मेरी कल्पना के चित्र में,
मेरे सपनों के आकाश में,
मेरे होने के एहसास में,
तुम कभी बदलना मत
रहना हमेशा साथ
"सुनो" बनकर,....
वो किरदार जो मुझे मुझसे ज्यादा जनता है।
अपने लिए नहीं मेरी खुशी के लिए जीता है।
जो जनता है कि दर्द में भी जी पा रही हूँ
तो इसलिए कि जीना चाहती हूँ।
डॉ ने कहा है खुश रहना होगा
और उसके लिए मेरे अंतर्मन में
अकेलापन, उदासी, नकारात्मकता नहीं
तुम्हारा रहना जरूरी है,...
रहोगे न साथ?
दर्द का रिश्ता निभाना भी तो प्यार है,
क्या हुआ कि सिवा दर्द के
कुछ नहीं मिला तुम्हे मुझसे,
पर कुछ बहुत निजी बातें
जो खुद भी नहीं समझ पाती
वो मैं सिर्फ सुनो से कर सकती हूँ,..
किसी पर इतनी निर्भरता
सिर्फ भावनाओं के सिवा न कुछ लेना न देना
फिर भी सबसे मजबूत रिश्ता
तन और आत्मा सा
जिसके टूटते ही शरीर निष्प्राण हो जाएगा
मेरी अन्तरात्मा यानि मेरे तुम
सुनो!
विचित्र ही सही पर ये सिर्फ प्यार है,....
प्रीति सुराना
सुन्दर रचना
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