Sunday, 2 September 2018

बावरा कहीं का

*बावरा कहीं का*

चुपके से मुझसे मन ये कहता है,
कभी कभी मुझे भी दर्द होता है।

बेसबब आँसू का कोई कतरा कभी
बेवक्त मेरा भी दामन भिगोता है।

जाने कौन सा राज है भीतर जो
सीने में टीस की सुई चुभोता है।

चाहता है बहुत कुछ कहना मगर
हर बार मौके पर मौके खोता है।

भरी महफ़िल में रहता है अकसर
तन्हाई में ही अपने ज़ख्म धोता है।

बंजर सी ख्वाबों की जमीन पर
बार-बार नई-नई उम्मीदें बोता है।

चेहरे पर चस्पा हँसी में सब छुपा कर
*बावरा कहीं का* छुप-छुप कर रोता है।

डॉ प्रीति सुराना

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