Saturday, 16 June 2018

क्षितिज तक,.

सुनो!!
क़ायनात भी नही चाहती
कि हम जुदा हों

तुम धूप से तमतामाते हो जब
-जब
तब-तब मैं बदरी सी बरस पड़ती हूँ

या फिर

मैं तपती जलती और उबलती हूँ गर्म लावे सी जब-जब
तब-तब तुम मुझपर नभ के बादल से छा जाते हो

और
दूर क्षितिज पर
एक सतरंगी
इंद्रधनुष
इतराता हुआ
याद दिलाता है
कि चलना ही है हमें
साथ-साथ
क्षितिज तक
बनकर धूप-छांव का
अद्भुत संगम
धरती और आसमान का
प्रतिनिधित्व करते हुए,...

कितना अजीब संजोग है न,...?

डॉ प्रीति सुराना

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