सुनो!!
क़ायनात भी नही चाहती
कि हम जुदा हों
तुम धूप से तमतामाते हो जब
-जब
तब-तब मैं बदरी सी बरस पड़ती हूँ
या फिर
मैं तपती जलती और उबलती हूँ गर्म लावे सी जब-जब
तब-तब तुम मुझपर नभ के बादल से छा जाते हो
और
दूर क्षितिज पर
एक सतरंगी
इंद्रधनुष
इतराता हुआ
याद दिलाता है
कि चलना ही है हमें
साथ-साथ
क्षितिज तक
बनकर धूप-छांव का
अद्भुत संगम
धरती और आसमान का
प्रतिनिधित्व करते हुए,...
कितना अजीब संजोग है न,...?
डॉ प्रीति सुराना
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