Friday, 15 June 2018

*समाज में व्याप्त बुराईयों और कुरीतियाँ कारण और निदान*

*शुरुआत हर वाद की विवाद से ही क्यों करें*
*रीतियों पर कुरीतियों का कुनाम क्यों मढ़ें*
*क्यों शुरू हुआ या बिगड़ा मामला कोई भी हो*
*आओ सुधार की संभावनाओं पर नया विन्यास गढ़ें।* (डॉ. प्रीति सुराना)

*समाज क्या है?*
समाज उन मानवों का वो समूह है जो किसी विचारधारा, परंपरा या सम्प्रदाय का अनुकरण करने के लिए नियत नियमावली का अनुकरण करता है।
मानव की प्रवृति है कि वह अकेला नहीं रह सकता इसलिए सामाजिक प्राणी कहलाता है। मानव इसी गुण के कारण परिवार बढ़ाता है, परिवारों में परस्पर विवाह, लेनदेन, व्यवहारिकता और अतिथि सत्कार की परंपराओं और रीति रिवाजों  से समाज बनता है।
समाज में परंपरा और रीति रिवाज़ कभी भी किसी कुरीति के रूप में स्थापित कभी नहीं होती बल्कि इन रीतियों का बनना, कालधर्म, परिवेश और परिस्थितिजन्य होता है।
अधिकतर कुरीतियाँ स्थायी तब हो जाती है जब समाज के ठेकेदारों का निजी राजनैतिक, शारीरिक, मानसिक या आर्थिक लाभ उसमें निहित होता है।

*आधुनकि भारत में आज भी विद्यमान कुछ मुख्य बुराइयाँ एवं कुरीतियाँ*

*स्त्री शोषण* :- मुगलकाल से आज तक स्त्री भोग्या की भूमिका में रही। जब रणभूमि में आई, जब रंगमंच पर उतरी, जब राजनीति में आई, जब विज्ञान को जीता तब-तब पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री की प्राकृतिक संरचना जो सृष्टि की नियंता है उसी को उसकी कमजोरी मानकर शोषण किया। स्त्री को शिखा से दूर किया, सती प्रथा, विधवा विवाह का विरोध जैसी कुरीतियों का जन्म इसीलिए हुआ।
*कन्या भ्रूण हत्या* :- गुलाम मानसिकता ने आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया, कन्या के बाल्यकाल में ही बलात्कार जैसी घृणित घटनाओं ने सबसे अधिक भ्रूणहत्या जैसे कुकृत्य को पोषित किया है।
*भ्रष्टाचार* :- बिना लिए दिए कोई काम न करने की आदत बाल्यकाल में बच्चे को चॉकलेट के लालच से ही सिखा दिया जाता है और आज उसी को भ्रष्टाचार का नाम दिया जाता है। न्याय और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार भी उसी का परिणाम है।
*बाल श्रम* :-गरीबी, भूखमरी और आर्थिक विषमताओं से युक्त भारत ने आर्थिक विषमता को दूर करने की बजाय आसानी से उपलब्ध बाल श्रम को भी एक कुरीति बना लिया।
*बाल विवाह और बहु विवाह*:- कन्या भ्रूण हत्या के कारण समाज के नर मादा के अनुपात में असंतुलन स्पष्ट दिखाई देने लगा। गुलाम भारत में अपने राज्य को बचाने के लिए बेटियों का आदान प्रदान होता था जो धीरे-धीरे  बाल विवाह और बहु विवाह नामक कुरीतियों में परिवर्तित हो गया।
*दहेज प्रथा* :- बेटियों के सुरक्षित और समृद्ध भविष्य के लिए मतापिता द्वारा देय उपहार  दहेज का एक विकराल दानव बन गया। जिसका मूल लोभ है।
*पर्दा प्रथा* :- इतिहास गवाह है कि औरतों की सुरक्षा के लिए शुरू की गई थी पर्दा प्रथा जिसे कुछ तबके के लोगों ने परंपरा और रीति बनाकर विकृत रूप में प्रतिपादित कर उसके लिए भी स्त्री पर दबाव व अत्याचार करना शुरु कर दिया।

*प्रथाओं परंपराओं या रीतियों के बुराईयों या कुरीतियों में बदलने के कारण*

*स्त्री शिक्षा का अभाव* :- पारिवारिक सामंजस्य हेतु पुरुष का दायित्व धनोपार्जन और स्त्री का दायित्व परिवार का पालनपोषण निर्धारित किया गया। समय के साथ साथ इस व्यवस्था को परंपरा का नाम देकर स्त्री की शिक्षा को अनुपयोगी माना जाने लगा। चूल्हा फूंकने के लिए अक्षर ज्ञान की क्या आवश्यकता जैसे कारण पुरुष प्रधान समाज के साथ साथ कुत्सित विचारधारा से भरे समाज मे स्त्री का देहरी से बाहर असुरक्षित होना भी था।
*व्यवहारिक शिक्षा की कमी* :- वर्तमान शिक्षा पद्धति में किताबी बातें रटाई और पढ़ाई जा रही है जबकि व्यवहार में जिन जरूरी बातों और शिष्टाचार, देशप्रेम, स्वामिभक्ति, कर्तव्यनिर्वाह और अधिकारों के सही प्रयोग की शिक्षा नाममात्र को नैतिक शिक्षा की किताबों में ही शेष राह गई है।
*नैतिक मूल्यों की अवहेलना* :- बड़ों को प्रणाम, स्त्री का सम्मान, कमज़ोर की रक्षा, अन्याय का विरोध, अत्याचार न करना न सहना, सच का साथ देना ये सारे नैतिक कार्य अब टके के भाव मे बिकते हैं, साहित्य, शिक्षा, कला और धर्म सब कुछ बिकाऊ समझा जाने लगा है।
*जागरूकता और उन्मूलन के कार्यों में धनलोलुपता* :- जितनी सामाजिक और धार्मिक संस्थाएं बनाई जाती है इन कुरितोयों को मिटाने के लिए वो आगे जाकर लालच की बलि चढ़ जाती है। समाज का हित चाहने वाली अपवादी संस्थाओं को बिकाऊ लोगों के कारण कार्य करने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता और उल्टा अच्छी संस्थाएं भी संदेह के घेरे में समुचित कार्य नहीं कर पाती।
*राजनैतिक घटक* :- राजनैतिक प्रदूषण हर घर हर गली हर समाज गाँव शहर जिला संभाग राज्य से होता हुआ पूरे देश में दम घोंटू जहर की तरह व्याप्त है जो न किसी को पनपने देता न सुधरने। एक सुधार के शुरुआत हो तो हज़ार कुकर्मों के रास्ते गढ़ते लोग हर चौराहे पर मिल जाएंगे।
*सामाजिक ढांचा* :- समाज अलग अलग सरगनों या सरदारों की सेना के रूप में तैयार हो रहे हैं जो अमन और शांति की बातें करते हुए भी भीतर ही भीतर अलगाव की चिनगारी सुलगाने का कार्य बखूबी करते हैं। समाज के ठेकेदारों के नाम धर्म स्थालियों , स्कूलों, शिक्षालयों के शीर्ष स्थल पर अंकित नज़र आते हैं पर सड़कों पर हो रही विनाशकारी गतिविधियों में कहीं भी सुरक्षात्मक भूमिका में नज़र कोई नहीं आता। उनकी भूमिका हिन्दी सिनेमा की पुलिस की तरह होती है जो अकसर बाद में आती है या मंचों पर आसीन होती है।
*साम्प्रदायिकता का बोलबाला* :- धर्म के नाम पर हो रहे घोटाले, दंगे, कुरीतियों को बढ़ावा देने का मुख्य कारण है क्योंकि यही कुरीतियाँ साम्प्रदायिक सरगनों की प्रभुत्व का आधार है।
*लचर न्यायव्यवस्था* :- सालों तक छोटी छोटी वारदातों के निर्णय के लिए न्यायालयों के चक्कर लगाने आए बचने के लिये अन्याय के खिलाफ आवाज़ न उठाना भी एक बहुत बड़ी कुरीति का रूप ले चुकी है।

*सामाजिक कुरीतियों का निदान*

*नैतिकता के हनन को रोकने के लिए कठोर कदम* :- परिवार, समाज, देश में नैतिकता की सुर सरिता का पुनरप्रवाह शिक्षा और दीक्षा के माध्यम से किया जाना चाहिए।
*भ्रष्टाचार उन्मूलन में जुड़े कार्यकर्ताओं का खुद ईमानदार होना* :- समाज का सुधार करने का दायित्व उठाने वाले कंधों का मजबूती से स्वयं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। हर व्यक्ति अगर कगुड उदाहरण बन जाए तो स्वच्छता अभियान की आवश्यक्ता ही न हो।
*राजनैतिक कारकों को सामाजिक रीतिरिवाजों को दूषित करने से रोकना* :- घर घर मे राजनीति के प्रवेश को रोकने के लिए सही मतदान हेतु जन जन को स्वविवेक से निर्णय लेने की शिक्षा देनी चाहिए न कि वोट के बदले भिक्षा।
*किताबी ज्ञान से अधिक व्यवहारिक शिक्षा को महत्व देना* :- किताब में लिखी बातों को रटकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने या आरक्षण का सहारा लेकर अयोग्यता को भी सम्मानित दर्जे में खड़ा करने की बजाय स्वस्थ मानसिकता के साथ पठनपाठन, योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्रों का चयन करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
*भाषाओं के नाम पर हो रहे विखंडन को रोकना* :- *अलग धर्म, अलग राज्य, अलग बोली लोगों को टुकड़ों में बांटने के अलावा कोई भी सद्कार्य नहीं करेगी। आज सबसे विचारणीय विषय है की हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित कर वो मजबूत डोरी बनाई जाए जिसमें हर बोली मोतियों के रूप में गुंथी जाए। और एक ऐसी माला बनाई जाए जो हर धर्म, हर बोली और हर राज्य को एकता के सूत्र में बांध सके। एक दूसरे की भय से समन्वय न बिठा पाने के कारण भी अच्छे संस्कारों का आदान-प्रदान नहीं हो पाता और बिचौलियों की भूमिका निभा रहे लोग विखंडन का कारण धर्म और बोली को साबित कर देते हैं।*
*आधुनिकता के नाम पर हो रहे संस्कारों के विनाश को रोकना* :- पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण ने भी भारतीय संस्कृति को विदेशियों के सामने नग्न किया है। जानबूझ कर सोशल मीडिया जे नाध्यम से भारत की ऐसी तस्वीर वायरल की जाती है जो असली भारत के किसी कोने में छुपे विकार की होती है। हमारा नैतिक दायित्व है कि ऐसे संदेशों के प्रचार प्रसार और अपने ही धर्मों, त्योहारों और महापुरुषों, महिलाओं पर बन रहे घटिया चुटकुलों को प्रसारित करना बंद करें।
*विविधता में एकता को पुनर्स्थापित करना* :- पुराना भारत विविधताओं में एकता का प्रतीक माना जाता था। विविधताएं तो आज भी विद्यमान है तभी तो विदेशी लोग भारत की संस्कृति का प्रचार अपने देशों में कर रहे हैं और हम उन्हीं विशेषताओं को लेकर अपबे ही भारत को खंड-खंड कर रहे हैं। आज एक एक व्यक्ति से देश की संस्कृति को कुरीतियों के कलंक से बचाने की व्यक्तिगत प्रार्थना करते हुए
अंत में *रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्तियों से जन-जन का आवाहन करती हूं,....*
*उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो,*
*बढ़ो, बढ़ो, कि आग में गुलामियों को झोंक दो,*
*परम्परा की होलिका जला रहीं जवानियाँ।*

डॉ. प्रीति सुराना, वारासिवनी (म.प्र.)

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