एकाकीपन मन पर छाया
बैरन सी रातें,
सूना सूना मन का आंगन
किसे कहूं बातें,
सुख-दुख के लेखे जोखे में
अधिक मिली पीड़ा,
पीर छुपाने का मुसकानों ने
उठा लिया बीड़ा,
सिरहाने टूटे सपनों की
रख ली सौगातें,...
एकाकीपन मन पर छाया
बैरन सी रातें,...
ढूंढ रही हूँ कोई मतलब
अपने होने का,
आज तड़प कुछ ज्यादा ही है
भय कुछ खोने का,
हर कोशिश की जो आंखों की
रोके बरसातें
एकाकीपन मन पर छाया
बैरन सी रातें,..
दूर गगन है तारों वाला
साथ नहीं कोई,
नींदे खोई, चैन गवांया
छुप छुप कर रोई,
जीवन के शतरंज में हरदम
पाई है मातें,...
एकाकीपन मन पर छाया
बैरन सी रातें,...
प्रीति सुराना
कोई तो साथ दे इस एकांकीपन में.
ReplyDeleteउम्दा रचना.
हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)
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