Thursday 24 May 2018

सर्वस्व

तुम्हारा कुछ पलों का साथ
जन्मजन्मांतर के संबंधों सा लगता है,..
याद नहीं तुम कब आए जीवन में
याद नहीं कैसा संयोग था
जब मिले हम तुम
याद नहीं कौन सी परिस्थिति थी कि तुमने थाम लिया मेरा हाथ
याद नहीं कि मैंने कैसे दे दिया तुम्हारे हाथों में अपना जीवन
बस याद है सिर्फ इतना
ये बंधन मन से मन का
आत्मा से आत्मा का
अगर छूटा तो
शरीर से प्राण का छूट जाना तय है
हाँ
मैं रह जाती हूँ चुप
कई विषयों पर
पर इसलिए नहीं कि वो मेरी मूढ़ता या अज्ञानता है
हाँ
मैं बोल जाती हूँ कुछ ज्यादा ही कभी कभी आक्रोश में
या भय से आक्रान्तित होकर
पर इसलिए नहीं कि मैं जताना चाहती हूँ कि मैं समर्थ हूँ खुद में
*मेरा मौन और मेरी बातें*
दोनों ही परिणाम है
तुम पर मेरे उस विश्वास की तरह
जिसे नास्तिक अंधविश्वास कहते हैं
और
ईश्वर के भक्त
*आस्था*
मेरा प्रेम मेरी भक्ति
मेरा समर्पण मेर अस्था
मेरा सर्वस्व तुम,... प्रीति सुराना

1 comment:

  1. अंतिम छोर पर आपकी रचना ने गजब का मोड़ लिया है.
    एक नई सोच को सलाम.
    " दोनों ही परिणाम है विश्वास का "
    गजब की अभिव्यक्ति.

    हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)

    .

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