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*अनुभव से अभिनव की प्रेरणा*
आज साहित्य तो सोशल मीडिया के मित्रों का समूहीकरण करने का सबसे अच्छा माध्यम है। साझा संग्रह समूह बनाम साहित्यिक परिवार के मेल मिलाप या आयोजन का सबसे सस्ता और अच्छा तरीका। सन 2012 से मैं लेखक या ये कह लूं फेसबुकिया लेखक के रूप में सक्रिय हूँ। आज अपना व्यक्तिगत अनुभव बताती हूँ कि अब तक लगभग 20 साझा संग्रहों का हिस्सा बनी हूँ और लगभग इतनी ही किताबों और साझा संग्रहों का संपादन भी किया। 2000 × 20= 40000 /- जिसमें औसतन 5 पेज में से 1 परिचय का पेज छोड़ दें तो 4×20= 80 रचनाएँ प्रकाशित हुई जिन संग्रहों में केवल पीछे के पेज में फ़ोटो और अंदर एक परिचय के बाद सारा अधिकार समूह संचालक का। जिसकी 5 प्रतियों के हिसाब से 100 किताबें मिलीं।
अनुक्रमणिका में नाम किताब में एक पेज परिचय और 5-7 रचनाएँ और पीछे के आवरण में चित्र के बाद भी स्वान्तः सुखाय गंतव्य तक पहुंचने और लौट कर आने तक 2000 कब 10000 के खर्च में बदले ये भी नहीं गिना कभी।
मित्र मिलते गए कारवां बढ़ता गया। महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून था, कुछ लिख से हटकर करने का जज़्बा था जिसके चलते बहुत सी संस्थाओं से जुड़ी। फिर 2016 में एक संग्रह निकाला और केवल मप्र की 111 महिला रचनाकारों का सम्मान का एक भव्य आयोजन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में किया । ये सोचा कि 500/- के रजिस्ट्रेशन के साथ भव्य आयोजन किया जाए। लेकिन परिणाम ये हुआ कि 40% लोगों ने (जिनका नाम भी लिख सकती हूं) पंजीयन शुल्क भी नहीं दिया पर स्वागत सामग्री, माला, 3 प्रतियाँ, दुपट्टा, प्रमाणपत्र, भोजन व आवास की सुविधा के साथ जरूर ग्रहण किया। स्वान्तः सुखाय किया यह आयोजन भी मेरे मंतव्य को सार्थक न कर सका।
एक धुन थी हिन्दी का प्रचार, हिन्दी के लेखन को प्रकाश में लाकर ही संभव है। अगस्त 2017 में फिर विचार किया सात विधाओं के अलग-अलग 7 साझा संग्रह निकाले 1500/- में 5 पेज 5 किताबें, सम्मान चिन्ह, सम्मानपत्र, आदि,.इत्यादि जितना अधिकतम और भव्य आयोजन किया जा सकता था करने का प्रयास किया और सफलतापूर्वक संपन्न भी किया लेकिन आर्थिक भार वही का वही।
स्वान्तः सुखाय ये सब कुछ करते हुए आज वेबसाइट, ई मैगजीन के 10 माह, फेसबुक समूह में 18700 सदस्य, 2000 लोगों द्वारा पसंद किया फेसबुक पेज, 150 लोगों का अनुशासित और सक्रिय व्हाटसप समूह, डेढ़ साल से लोकजंग दैनिक अखबार में अन्तरा-शब्दशक्ति के रचनाकारों का एक पूरा संपादित पेज। फिर भी स्वान्तः सुख की बजाय केवल तनाव।
मित्रों की तानाकशी भी कभी कभी बहुत काम आती है या मैं मानती हूं रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक का काम करते हैं कुछ मित्र। कुछ साथ चले कुछ छूट गए पर साथ ही पुस्तक मेला, प्रकाशकों से सीधा संपर्क और अनुभवों का अंबार बन गया। आखिर जिद में ही सहीं अन्तरा-शब्दशक्ति प्रकाशन शुरू हो गया। isbn भी और बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा। सबसे बड़ी बात "मातृभाषा उन्नयन संस्थान" का उद्देश्य हिन्दी का प्रचार, उसका एक सरलतम तरीका लगा कि प्रकाशन की प्रक्रिया को सरल किया जाए। इसके लिए सबसे पहले रचनाकारों से व्यक्तिगत अनुभव जानें। सबसे तीन सवाल किए:-
1. कितने साझा संग्रह में शामिल हुए?
2. कितनी प्रतियां मिली?
3. कितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई?
अधिकतम की बात ही जानें दें क्योंकि शायद उतने रुपये में तो 10-15 किताबें 150 प्रतियाँ खुद की ही छपवा ली होती। अब बात न्यूनतम की यानि एक साझा संग्रह जिसका (आजकल अपवादों को छोड़कर) मूल्य चल रहा है औसतन 2000-2500/- । जिसमे 5-7 पेज और 5-10 प्रतियाँ कुछ में तो केवल 2 ही प्रतियाँ स्मृति चिन्ह और सम्मानपत्र के साथ। आवागमन का खर्च जोड़ना संभव नहीं क्योंकि कुछ स्थानीय बाकी सभी 100 से 1000 किमी की दूरी से आते हैं पर कोई बात नहीं क्योंकि इसे भी घूमने-फिरने-मिलने-मिलाने का एक मौका मान लें।
अब हमनें ये पूछा कि ये किताबें यानी 5 प्रतियाँ किस-किस को देते हैं तो अधिकतर परिजनों को उपहार स्वरूप देने और एक या दो प्रति खुद के संग्रह हेतु।
विशेष लाभ परिचय में एक संग्रह का नाम और बढ़ गया और घर के बैठक कक्ष में लोगों को प्रभावित करने के लिए एक और स्मृति चिन्ह मिल गया या जो समर्थ हैं उन्होंने अख़बारों में प्रकाशित करवाकर एक और संतुष्टि हासिल की। खैर,... ये सब विगत 7 वर्षों से किया, करते देखा, करते हुए को सराहा भी।
पर अब अन्तरा-शब्दशक्ति ने एक नया प्रयोग शुरू किया।
एक रचनाकार का परिचय, भूमिका,12 कविताएं 16 पृष्ठों में एक सुंदर सुसज्जित आवरण सहित प्रस्तुत किया जाए जो नितांत उसकी अपनी होगी, जिसमें किसी की साझेदारी नहीं होगी। कोई संपादक नहीं होगा केवल रचनाकार और प्रकाशक होंगे। 10 प्रतियाँ और ई बुक का लिंक और साथ ही किताब का पीडीएफ दिया जाएगा जिसे किसी भी सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित किया जा सकता है। उपलब्धि की बात यह कि आपके परिचय में साझा संग्रह की बजाय आपकी खुद की किताब का नाम होगा। इस तरह साल में 5 साझा संग्रह की बजाय उसी कीमत में खुद की 10 किताबें प्रकाशित करवाइये और स्वान्तः सुख की प्राप्ति ही नहीं बल्कि प्रभावशाली परिचय बनकर दिखाइए। और मातृभाषा उन्नयन संस्थान के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर हिन्दी साहित्य के विस्तार के साथ-साथ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम में सहभागी भी बनें। डिजिटल इंडिया का एक सार्थक कदम यह भी होगा। और सबसे बड़ा फायदा जिन मेल मिलाप के लिए हम इन संग्रहों का हिस्सा बनते हैं वो अवसर भी एक बड़े आयोजन के माध्यम से सम्मान प्राप्त होगा।
तो सोचिये और जरूर सोचिये,...
*भीड़ का हिस्सा बनकर जियेंगे कब तक*
*कोई पहचान अलग न बना सके अब तक*
*आओ कोशिश करें एक अभिनव अभियान की*
*हिन्दी को राष्ट्रभाषा न बना दें तब तक,...*
*डॉ.प्रीति सुराना*
संस्थापिका
अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन
http://bulletinofblog.blogspot.in/2018/04/blog-post_17.html
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