Thursday, 29 March 2018

*न्याय की ओट में*


सुषमा और आलोक एक ही महाविद्यालय में अध्यापन करते थे। दोनों ही असंतुष्ट जीवन के चलते मित्र बन गए घनिष्टता कब निर्भरता में बदल गई पता ही न चला।
लोगों की कानाफूसी शुरू है गई। एक स्त्री और पुरुष की मित्रता को संकुचित मानसिकता का समाज और दे ही क्या सकता था?
स्त्री जब समर्पण करती है तो पीछे नहीं हटती ये सोचकर सुषमा सब कुछ सहती रही।
पर एक दिन अचानक आलोक ने उसे बताया उसकी पत्नी ने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करने की धमकी दी है। कानून की झंझटों से बचने के लिए उसने तबादला करवा लिया है।
असंतुष्ट जीवन से आक्रांत सुषमा को परित्यक्त होने का अहसास कराकर आलोक अपनी गृहस्थी बचाने निकल पड़ा पर ये न सोचा कि साफ नीयत के पवित्र रिश्ते को बचाना भी क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं थी?
कम से कम जाते-जाते सुषमा को निर्दोष साबित कर जाता लेकिन *न्याय की ओट में* भावनाओं के महत्वहीन होने के फैसले पर मुहर लगा गया आलोक,..

प्रीति सुराना

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