Thursday, 25 January 2018

रुक रही हूँ मैं

रुक रही हूं मैं इसी मोड़ पर
अब नही जाना आगे-पीछे,

दाएं-बाएं,ऊपर-नीचे,
अगल-बगल, इधर-उधर,

दसो दिशाओं में फैला हुआ है
केवल दहशत का वातावरण,

'कर्मण्येवाधिकारस्ते,..' का
बहुत देर तक किया पालन,

सुधार की कोई गुंजाईश नहीं
सारे के सारे प्रयास व्यर्थ हैं,

क्योंकि नहीं है हिम्मत मुझमें
लड़ने की अपनों से अपने लिए,

आंदोलन, सत्याग्रह, विरोध, धरना
ढेर सारे राजनैतिक दाँव पेच,

शिकार देश, समाज, परिवार, रिश्ते
और हासिल प्रतिपल बिखरने की प्रक्रिया,

घुटता है दम रिश्तों का
जिसमें हावी होता है डर,

इसलिए

रुक रही हूं मैं इसी मोड़ पर
अब नही जाना मुझे कहीं भी,....

प्रीति सुराना

1 comment:

  1. तमाम झमेलों की परिणति दुःख के सिवाय कुछ नहीं
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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