Friday 22 December 2017

सैनिक की पत्नी की डायरी का एक पन्ना

*सैनिक की पत्नी की डायरी का एक पन्ना*

हाँ!
कर दिया है विदा
विजय तिलक लगाकर तुम्हें
तुम्हारी समस्त इच्छओं
और
लक्ष्य को ध्यान में रखकर,..

अब बैठी हूँ तुम्हारे प्रतिमान
यानि यादों की किताब को थामें
जो तुम्हारी अनुपस्थिति में
एक मात्र सहारा है
मेरे सुख-दुख का,
यादों के भंवर से डूबती उतरती
बचती, संभलती,..
तुम्हारे बिना सब कुछ संभाल लेने हेतु कर्तव्यबद्ध हूँ,
अश्रु को तुम्हारे लक्ष्य हेतु
बाधक न होने देने को वचनबद्ध भी,
हर वचन निभाऊंगी,..

ये मैं जानती हूं
मैं अशक्त नहीं हूं
मुझमें है पर्याप्त क्षमता
तुम्हारे लक्ष्य पथ के अनुकूल
स्वयं को तत्पर और समर्पित रखने की,..
तुम्हारे लक्ष्य ने बना दिया है
तुम्हें विरक्त सांसारिक दायित्वों से,
और तुम्हारे वैराग्य को स्वीकार कर
तुम्हे मुक्तिपथ पर भेज दिया है,
तुम्हें रणछोड़ नहीं
समरशेष होने को प्रेरित किया है मैंने,..

हाँ! सहर्ष स्वीकार है
तुम्हारा बलिदान मुझे
क्योंकि ये वो प्रतिदान है
एक माँ का दूसरी माँ के लिए
क्योंकि मैं अपनी संतानों के लिए प्रतिबद्ध हूँ
उत्तरदायित्व से विमुख होकर,
नहीं दे सकती स्वयं का बलिदान,
पर कायम है मेरे भी हृदय में भी
तिरंगे के प्रति सम्मान,
इसलिये नही रोकती राह तुम्हारी
और करती हूं तुम्हारी भावनाओं का सम्मान,..

पर
तुम्हारे जाने के बाद
अपने दायित्वों के निर्वाह के बाद
दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण अंश यानि रात्रि
रात की गहनता के साथ-साथ
मेरे एकाकीपन की साक्षी,
जब मैं हर पल मांगती हूँ
आराध्य से एक प्रतिफल
अपने समर्पण के फलस्वरूप
कि तुम समरशेष न होना
बल्कि
देश की सीमाओं पर सुरक्षा का वो चक्रव्यूह रच आना
समर ही शेष रह जाए,...

फिर न हो
कोई समर किसी भूमि पर
सर्वत्र शांति और समता का
वातावरण निर्मित हो
और कोई वीरभार्या स्वयं अपने सौभाग्य को
इस तरह विदा करने को विवश न हो।

हे वीरपुत्र!
तुम्हें विजयतिलक लगाकर भेजा है
अश्रुरहित आँखों से
स्वयं को पाषाण हृदय दर्शाकर समरभूमि में
पर सत्य ये है
तुम्हारे जाते ही
मैं भी करती हूँ कर्मयुद्ध अपनी कर्तव्यभूमि पर,
और तब कोई नहीं होता मुझे विजयतिलक लगाने वाला,...

मैं स्त्री हूँ!
उस समतल धरती के समान
जिसके भीतर पल रहे लावे
ऊपर से दिखते नहीं
पर कभी-कभी वाष्पित होकर
रिसते हैं नमी बनकर किसी दरार से
या कभी फूट पड़ते हैं
संताप के बढ़ जाने पर ज्वालामुखी बनकर,
ये धरती की सहनशीलता की सीमाओं के
समर का परिणाम होता है,...

हे प्राणप्रिय!
तुम समर से लौटो,
या समरशेष हो जाओ
तब तक निर्णय
मेरे जीवन का भी निश्चित नहीं,..
तुम्हारे जाने से तुम्हारी वापसी के बीच
कर्तव्यपथ पर इस समर में
मैं भी हो सकती हूँ समरशेष
तब तक के सारे पल
अंकित हैं यादों की किताब में
मेरे अश्रुओं के निशान के साथ,...

सुनो!
अश्रुओं को बाधक न होने देने को
वचनबद्ध हूँ,
पर तुमसे विलग होकर
अपने संताप से रिसते हुए
अश्रुओं को रोक पाने में असमर्थ भी,..
हो सके तो समझना
धरती की तरह
मेरी भी विवशता,... प्रीति सुराना

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 08 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. अद्भुत! सराहना से परे!! नि:शब्द!!!

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