Tuesday 26 December 2017

प्रतिक्रिया


प्रतिक्रिया
         पिछले कई दिनों से महसूस कर रहा था यश कि उसके और आरोही के बीच की कहा-सुनी लगभग खत्म हो गई है।
         रोज सुबह नाश्ते पर दोनों साथ होते हैं, इसके बाद यश ऑफिस निकल जाता और ऑफिस दूर होने के कारण सीधे रात को घर लौटता।
          मुम्बई जैसे बड़े शहर में दूर दराज कहीं सुनसान जगह पर कंपनी से मिला फ्लैट सभी सुविधाओं से युक्त था पर छोटी सी भी चीज घर की जरूरत की चाहिए हो तो शहर तक जाकर लेन में आधा दिन गुजर जाता। पूरा दिन आरोही अकेले पड़े रहकर हर बात के लिए यश पर निर्भर होती चली गई। पास-पड़ोस में गिनेचुने लोग जिनके चेहरे भी यदा-कदा की देखने को मिलते।
           देर रात लौटा यश इतना थका हुआ होता कि चुपचाप खाना खाकर सो जाता। यश और आरोही के बीच वार्तालाप का समय होता सुबह-सुबह प्यार से यश को जगाने से लेकर टिफिन देकर ऑफिस भेजने तक।
          ऐसे में आरोही के पास नाश्ते की टेबल ही एकमात्र जगह होती जहां वो घर की जरूरतें, और कुछ मन की बातें और अपना अकेलापन यश से कह पाती। पर धीरे-धीरे यश खीझने लगा, अकसर बात इस वाक्य के साथ खत्म होता कि मेरे पास समय नहीं रोज-रोज तुम्हारा रोना, तुम्हारी शिकायतें दूर करना मेरे बस की बात नहीं।
            ऐसा नहीं कि यश आरोही से प्रेम नहीं करता। पर बहुत अजीब था कि जब प्रेम उमड़े उसे आरोही से अपेक्षा होती कि वो उसपर दुगना प्रेम उढ़ेले पर जब वह चिढ़ता या नाराज होता तब उसे कतई बर्दाश्त नहीं होता कि आरोही कोई भी प्रतिक्रिया दे।
          धीरे-धीरे दोनों के बीच एक अनुबंध सा हो गया। आरोही हर खुशी में हंसकर शामिल होती पर यश के क्रोध से बचने के लिये अपनी जरूरतों और भावनाओं को दबा लेती।
          नाश्ते की टेबल की कहा-सुनी तो बंद हो गई पर आरोही के भीतर जीवन का उत्साह कम होने लगा। यश से संवाद सिर्फ उतना ही होता जितना यश चाहता।
          आज दोनों के बीच पसरे सन्नाटे, और आरोही के मुरझाए चेहरे को देख बरबस ही यश के मन मे हलचल मच गई। दिनभर यश का मन काम में नहीं लगा। न चाहते हुए भी आरोही उसके जेहन में बार-बार आती रही। और धीरे - धीरे उसे आरोही की पीड़ा समझ आने लगी। और वो ये भी समझ गया कि समस्या क्या है।
       हर क्रिया की प्रतिक्रिया जरूरी है। प्रेम के बदले प्रेम चाहिए पर गुस्से की कोई प्रतिक्रिया न सह पाना ही यश की कमजोरी थी जो दोनों के बीच पसरी दूरी का कारण थी। अब यश ने तय कर लिया था वो खुद को बदलेगा, और कहने जे साथ सुनने की आदत भी डालेगा।
         बहुत थोड़े से प्रयास के बाद ही यश आरोही के मन तक फिर से पहुंच गया। रोज सुबह हंसी-खुशी और नोकझोंक अब पहले से अधिक होने लगी। और इस बदलाव की प्रतिक्रिया ये हुई कि अब दोनों अपने सूने घर में नन्हें कदमों से आने वाली खुशियों का इंतजार कर रहे हैं।
           दोनों के प्रेम और समर्पण का ही परिणाम है कि अब यश और आरोही सचमुच हर सुख-दुख के साझेदार और सच्चे जीवनसाथी बनकर अपनी जीवन बगिया को संवार पाए।

प्रीति सुराना

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