Thursday 16 November 2017

भारी बस्ते हल्की शिक्षा

"बस्तों में बोझ और विकृत होती संस्कृति"

किताबें सबसे अच्छी मित्र होती हैं पर यही किताबें बच्चों के लिए बोझ बन गई नवीन शिक्षा पद्धति के चलते। पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते हम यानि शिक्षक और अभिभावक ये भूल गए कि इसका औचित्य क्या?
शिक्षा से शिक्षक शिक्षित करे
और पाठ पढ़ाये पाठशाला
पग-पग सबक सिखाती जिंदगी
अगर हो कोई सीखने वाला,...
आज हम और आप केवल स्टेटस सिम्बल(प्रतिष्ठा के प्रतीक) के रूप में बच्चों के लिए स्कूल का चुनाव करते हैं। प्रतिष्ठा का प्रतीक इसलिए क्योंकि जितने सक्षम और समृद्ध परिवार का बच्चा उतना ज्यादा महंगा, बड़ा और सुविधायुक्त स्कूल। जहां एक बच्चा सीखता अपनी प्रतिष्ठा को बरकरार रखने के गुर। जिसके लिए उसे विधार्थी से बनना पड़ता है प्रतियोगी। गुरु-शिष्य की परंपरा जब से विलुप्त हुई तब से अर्जुन और एकलव्य जैसे लक्ष्य साधकों के उदाहरण भी पुराना सा लगने लगा है।
बहुमखी विकास के लिए अब बच्चा किताबों के साथ-साथ, विविध उपकरणों और इंटेरनेट (अंतर्जाल) का भी इतना आदि हो गया है कि उसे दो और दो जोड़ने के लिए भी केल्कुलेटर (संगणक) और देश के प्रधानमंत्री का नाम तक इंटरनेट पर ढूंढता है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के साथ हर बच्चा खुद को समय के साथ अपडेट करना सीखने लगा है लेकिन परंपराओं और व्यवहारिक पक्ष को पीछे छोड़कर।
वर्तमान पीढ़ी में माता-पिता , गुरु और मातृभाषा के प्रति तनिक ही सहीं पर भावनात्मक लगाव शेष है। पर जब बच्चे को पाला ही विदेशी संस्कृति के सहारे जाएगा तो वो दिन दूर नहीं जब इस देश में भी बच्चे बालिग होते ही पितृछाया से अलग अपनी दुनिया बसाने में सुविधा महसूस (कम्फर्ट फील) करेगा।
आज आवश्यकता है बच्चे को किताबों से भावनात्मक जुड़ाव के लिए प्रेरित करने का,.. जो पढ़ा उसे जीना चाहिए। जो रटा उसे बड़े-बड़े व्याख्यान (स्पीच) के रूप में लोगों के सामने बेस्ट परफॉर्मर बनकर प्रस्तुत करना सीख जाते हैं जो बच्चे क्या वही बच्चे उस किताब का एक अंश भी जीवन में उतारना सीख पाते है??
जितनी बड़ी समस्या पीढ़ियों का अंतराल (जनरेशन गैप) है उतनी ही बड़ी समस्या शिक्षा का बोझ बन जाना है। "सपनों के लिए अपनों से दूर होने की आधुनिकतम सभ्यता" की नींव उसी पल डाल दी जाती है जिस पल बच्चे को मिट्टी को गंदगी, मां को मॉम और हिंदी को पिछड़ी भाषा मानकर अंग्रेजी को ऊंचा दर्जा दिया जाता है फिर अपनी ही गलतियों के लिए दोषी कोई और क्यों ठहाराया जाए??
भारत के डिजिटल होते-होते और आधुनिक शिक्षा के चलते बस्तों का बोझ तो धीरे-धीरे कम हो ही जाएगा लेकिन विचारणीय पक्ष यह भी है कि जिन कंधों पर मातृभाषा की किताबें बोझ लगने लगे उन कंधों पर टिके मस्तिष्क में माँ और मातृभूमि के प्रति प्रेम कब तक टिकेगा,... ????

प्रीति सुराना

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