"रोओगे जब भी खोओगे"
सुनो!!
मिलने से साथ चलने तक का
एक एक लम्हा
जिंदगी होता है
जो सुख देता है
सिर्फ जिंदगी को,..
क्योंकि
जब सुख होता है
तब सिर्फ सुख याद होता है
कहाँ याद होता है
कुछ और
सिवाय सुखद साथ के???
और
साथ चलने से
साथ छूटने तक के सफ़र को
शायद मौत कहते हैं
मौत वो सच्चाई
सब अनदेखा करते है,..
साथ छोड़ने वाला
आख़री उम्मीद तक
आख़री विश्वास तक
आख़री सांस तक
आख़री धड़कन तक
आखरी दम तक,...
शरीर और मन को ही नहीं
आत्मा को भी
पल-पल
तिल-तिल
मारता ही जाता है
मारता ही जाता है,..
दुख की कालिमा में,
नहीं महसूस होता
क्रूरतम व्यवहार,
जो किसी के अस्तित्व की
मृत्यु की वजह बन जाता है
बिना पूर्वानुभूति के,...
इसलिए अध्यात्म कहता है
अकेले चलो
बेसहारा चलो
अपने एक हाथ की आदत
दूसरे हाथ को भी मत डालो
"रोओगे जब भी खोओगे"
कुछ नही होने का दर्द
आदत बन जाएगा
पर खोने का दर्द मौत
इसलिए ज़ियों तो अकेले
मरो तो बस मर जाओ
साथ की लत से मत मरो,...
प्रीति सुराना
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