ये कैसे डेरे हैं मन के
जो भावों को छलते है,..
आस्था को डर जैसा पाले
जो जनमानस बैठा है
उनके कंधों पर पग रखकर
अगुआ सारे चलते है,..
ये कैसे डेरे हैं मन के
जो भावों को छलते है,..
सिर पर ताज पहनकर बैठे
जनता को बहकाते हैं
बातों में आकर आखिर में
हाथ हमेशा मलते है,..
ये कैसे डेरे हैं मन के
जो भावों को छलते है,..
किसको है परवाह जरा भी
उसकी जो झुक जाता है
लड़कर ही सारी दुनिया से
साहस वाले पलते हैं,..
ये कैसे डेरे हैं मन के
जो भावों को छलते है,..
जितने गहरे नाते मन के
उतने गहरे बंधन हैं
सुख की आशा में जो भटके
देखो जिंदा जलते हैं,..
ये कैसे डेरे हैं मन के
जो भावों को छलते है,..
प्रीति सुराना
त्यंत विचारणीय ! एवं मंथन योग्य विषय ! विचार करना होगा !आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार "एकलव्य"
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