Thursday, 24 August 2017

*स्वयं ही स्वयं के समालोचक बनें*

सामान्य जन जीवन में किसी भी कार्य को स्वीकारने या नकारने का अधिकार अघोषित मौलिक अधिकारों में से एक है। सामान्य तौर कार्यों पर की गई प्रतिक्रिया को वर्गीकृत किया जाए तो इसकी तीन श्रेणियां है।
1. प्रशंसक
2. आलोचक
3. समालोचक

*प्रशंसक*:- जो किसी के कार्यों का गुणानुवाद करे । सराहना से उसे और अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करें। प्रशंसक हमें बहुत प्रिय होते हैं।प्रशंसा उत्प्रेरक का काम करती है। पर अतिप्रशंसा हमें आत्ममुग्धता की ओर ले जाती है। कई बार ये प्रशंसा स्वार्थवश या चाटुकारिता भी होती है पर कर्ता इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि पता ही नही चलता और खुद की श्रेष्ठता के भ्रम में ही खोता चला जाता है। इससे उसके कार्य क्षेत्र और गुणवत्ता का विकास रुकने लगता है। सावधान! ऐसी परिस्थिति में कर्ता विवेक का उपयोग जरूर करे।
*आलोचक*:- जो किसी के कार्यों के केवल दोषों को इंगित करके उसकी निंदा करते हुए कार्यों को सुधारने के लिए प्रेरित करे । आलोचक जो निंदा इसलिए करता है ताकि हम अपने कार्य के स्तर का सुधार करें। आलोचक यदि स्वयं आत्ममुग्ध न हो तो अच्छा मित्र और पथ प्रदर्शक हो सकता है। पर किसी कार्य की आलोचना अधिक हो जाए तो कर्ता में हीन भावना घर करने लगती है। वह नैराश्य भाव का शिकार होने लगता है और धीरे धीरे अपनी कर्म चेतना से विमुख होने लगता है। ऐसे में आलोचक शत्रु जैसा लगने लगता है। कई बार आलोचना की वजह व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण भी की जाती है। सावधान ! ऐसी परिस्थिति में आत्मविश्वास कभी न खोएं।
*समालोचक* :- जो गुण और दोष दोनों की समुचित व्याख्याकर गुणों को बढ़ाने और दोषों को कम करने की प्रेरणा देकर कार्य की गुणवत्ता में वृद्धि करने में सहायक बनें। समालोचक जो नीरक्षीर के विवेक से परिपूर्ण कार्य के गुण और दोष दोनों को अलग अलग करके गुणों की प्रसंशा और दोषों के परिमार्जन हेतु उपयुक्त मार्ग बताकर सच्चे मित्र की भूमिका निभाता है। कर्ता को आत्ममुग्धता से बचाता है साथ ही निराश होकर कर्मविमुख होने से रोककर कार्यों के गुणवत्ता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण कारक सिद्ध होता है। ऐसे लोगों को कभी खुद से दूर मत जाने दीजिए।
जब भी आलोचना या समालोचना की बात होती है कबीर का दोहा जरूर याद आता है।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थात : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को निर्मल करता है ।
ये शाब्दिक अर्थ हम सभी जानते, सुनते, समझते हैं या हमें बचपन से पढ़ाया और समझाया जाता है। पर हम आज बात व्यवहारिक होकर करें।
मन से, विवेक से, ईमानदारी से सोचिए कि क्या किसी शत्रुवत व्यवहार वाले को आंगन में घर बनाकर साथ रखा जा सकता है ? जो आपको हमेशा निंदा से कर्महीनता की ओर अग्रसर करे। नही न??
किसी मित्र को अपने आंगन में रखने की आवश्यकता ही नही क्योंकि वह जीवन में शामिल ही होता है तभी तो आपकी प्रशंसा के पुल बांधता है।
जरूरत है जो न मित्र है न शत्रु, जो बुरे को बुरा या अच्छे को अच्छा कहने का साहस रखे वैसे लोग कम मिलते है जरूरत है ऐसे निंदक को मित्र बनाकर अपने जीवन के आंगन में बसाया जाए ताकि समय समय पर समुचित मार्गदर्शन मिले।
कोई भी व्यक्ति कर्म संहिता के अनुसार सिर्फ पाप या सिर्फ पुण्य को भोगकर मुक्त नही होता। मुक्ति के लिए पाप और पुण्य दोनों ही खातों को खत्म करना होता है तभी मुक्ति संभव है।
कोई भी व्यक्ति खुद को पूरी तरह पारंगत मानकर खुद को सर्वश्रेष्ठ मान ले तो उस निर्धारित मापदंड के बाद निष्क्रिय हो जाता है।
कोई भी व्यक्ति खुद को पूरी तरह असफल मान ले तो कुछ भी करने से भयभीत होकर कर्महीन हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति गुणों के विस्तार और दोषों के परिमार्जन के लिए समान रूप से सचेत होता है वो हमेशा ही प्रगतिशील होता है।
एक मां अपने बच्चे के पहले अक्षरज्ञान से केवल प्रशंसा ही करती तो बच्चा जीवन के पथ में कच्चा ही रह जाता क्योंकि उसे बुराई सुनने या गलती स्वीकारने की आदत नही होती, और यदि केवल आलोचना करती या दंड ही देती तो परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने की कला कभी नही सीख पाता। मां का प्रेम और दंड दोनों ही जरूरी है। वो जानती है अत्यधिक लाड़ बच्चे को बिगाड़ देगा और अत्यधिक कठोरता बच्चे को उद्दंड बना देगी। अतः स्वयं सिद्ध है कि जीवन का सबसे पहला समालोचक मां होती है।
आज के परिवेश में स्वार्थ, प्रतिद्वंदिता और अहम ऐसे कारक हैं कि सच्चे प्रशंसक, आलोचक या समालोचक की पहचान में विवेक साथ नही देता, आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। ऐसे में विचलित न हों बल्कि हंस की भांति स्वविवेक से धैर्यपूर्वक स्वयं को स्वयं का समालोचक बनाएं क्योंकि हमारे आसपास निंदक और प्रशंसक तो परिस्थितियां स्वयं बना देती है।
*प्रशंसा सुनकर इठलाएं नहीं*
*निंदा सुनकर घबराएं नहीं*
*हंस बनकर चुने मोती*
*'कर्म ही जीवन है' बिसराएं नही।*

प्रीति सुराना

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