*एक ही इंसान*
सुनो!
कोई साया नही
कोई परछाई नही
कोई प्रतिबिम्ब नही
कोई प्रतिलिपि नही
कोई प्रतिकृति नही
कोई अनुकृति नही
एक ही इंसान
जीता है
अपने ही मौलिक स्वरूप में
एक साथ
कई कई किरदार
कई कई रिश्ते
कई कई रूप
कई कई भाव
कई कई जिम्मेदारियां
कई कई ओहदे
एक ही इंसान
रहता है
अपने ही मौलिक स्वरूप में
एक साथ
खुद में
परिवार में
समाज में
समूहों में
देश में
सृष्टि में
एक ही इंसान
जिसे एक बार ही जीना है
और एक बार ही मरना है
फिर क्यों कहें किसीको
धोखेबाज़
मौकापरस्त
स्वार्थी
दोगला
बहुरूपिया
गिरगिट
सिर्फ करें हम इतना
जब भी हो आकलन करना
तो उठाना बस इतनी सी जहमत
अपने सामने भी आईना रखना
और याद करना
खुद से मिलाकर नज़र
पिता, पुत्र, पति, प्रेमी, मित्र और इंसान
या
मां, बेटी, पत्नी, प्रेमिका, मित्र और इंसान
इन सभी में एकरूपता निभा पाए अपनी
या
बदले परिस्थिति अवश्यकता और भूमिका के साथ
अपने
रंग रूप गुणधर्म व्यवहार प्राथमिकता और दृष्टिकोण
और हाँ!
हर सवाल का जवाब देना
खुद से मिलाकर नज़र
आईने में,..'एक ही इंसान'
*प्रीति सुराना*
आदमी का आदमी से सत्य का साक्षात्कार कराती सुन्दर रचना आभार "एकलव्य"
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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