सुनो!!
मैं गई थी
सागर के किनारे
दोहरा आई जिंदगी के
अनेक यादगार पल,..
मिलती है बहुत हिम्मत
सागर की आती जाती
लहरों को देखकर,..
होता है भान
सुख-दुख की
नश्वरता का भी,..
क्या हुआ
जो समंदर बहता नही,
पर लहरें बार बार
सिखाती है
समझाती है
जिससे
दिल और दिमाग की
समझ भी पुख्ता होती है
कि
समय गतिशील रहता है
रुकता नही,..
और हाँ!
किनारे की रेत
हथेलियों में उठाकर
छोड़ दिया वापस
उसमें से
छोटी छोटी मछलियों को
जी लेने के लिए जी भर
और
चुन लाई कुछ सुनहरे से मोती
छुपाकर अपनी मुट्ठी में
ताकि किसी की नज़र न लगे,..
सच
लोगों ने देखे
सिर्फ मेरे गीले पैर
और पैरों में लगी रेत
क्योंकि लोगों को
नही था अंदाज़ा
मेरे भीतर के हंस के
नीर-क्षीर के विवेक का
कि
चुन सकूँगी हंस की तरह
मोती जिंदगी के सागर से,...
प्रीति सुराना
बहुत सुन्दर
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