पीर बहुत है मेरे मन मे
और वजह कोई अपना है
पलकों की कोरों पर अटका
मेरा ही टूटा सपना है
आंगन में तुलसी रोंपी थी
सोचा अब घर महकेगा
कोई लम्हा आकर आंगन में
कुछ पल को तो चहकेगा
पर तुलसी की किसमत में ही
धूप में पल पल तपना है
पीर बहुत है,..
कर्म हमेशा वही किये जो
सुख अपनों को दे पाये
अपनो के सुख की खातिर ही
सुख अपने भी बिसराये
सार यही निकला आखिर में
जीवन को यूं ही खपना है
पीर बहुत है,..
होते हैं सब लेखे जोखे
कालचक्र के खातों में
अस्त्र-शस्त्र से घाव किया या
जहर दिया हो बातों में
हर हरकत का फल आखिर में
खुद को ही तो चखना है
पीर बहुत है,..
देश बढ़े, इतिहास गढ़े या
प्रगति के सोपान चढ़े
राष्ट्र जागरण का प्रण करके
साक्षरता का पाठ पढ़े
विकसित हो जन-जन का जीवन
अब मंत्र यही तो जपना है
पीर बहुत है,..
पीर बहुत है मेरे मन मे
और वजह कोई अपना है
पलकों की कोरों पर अटका
मेरा ही टूटा सपना है,..
प्रीति सुराना
बेहद उम्दा लयबद्ध रचना दिल को छू गयी
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-07-2017) को रविकर वो बरसात सी, लगी दिखाने दम्भ; चर्चामंच 2655 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'