हाँ!
यही तो होता है
अकसर,..
लोग
कभी गले मिलकर
कभी गले मे हाथ डालकर,..
कभी झुककर
कभी सर पर बिठाकर
कभी हाथ थामकर,..
कभी हाथ जोड़कर
महानता और अपनेपन का
एहसास दिलाते हैं,..
लेकिन
सिर्फ तब तक
जब तक जरूरत हो,..
कभी देखा
किसी को मंजिल की
अंतिम सीढ़ी पर पहुंचकर,..
पहली सीढ़ी का
आभार व्यक्त करते हुए???
मंजिल पर पहुंचा वो सफल व्यक्ति
हाथ हिलाकर नीचे खड़े लोगों से
अपनी खुशी बांटता है,..
बीच बीच में हाथ जोड़कर
धन्यवाद देता है
कुछ परिचिति-अपरिचित लोगों को,…
बस
वो भूल जाता है
पहली सीढ़ी को,..
वो पहली सीढ़ी
परिचितों या अपरिचितों में क्या
किसीके मनमस्तिष्क में ही नही होती,...
समझती हूं
उस उपेक्षित
पहली सीढ़ी का दर्द,..
पर खुश हूं उसके लिए
कम से कम
उसकी जगह स्थायी तो है,...
अपनी पहचान बनाने के लिए
तमाम उठापटक से मुक्त
अपनी नियति के साथ खुश,...
प्रीति सुराना
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