कुछ तो टूट रहा है अंदर
कितना छल फैला है बाहर
कोई तो मिल जाता ऐसा
जिसका कोई स्वार्थ न हो
पर बिन मतलब कोई नाता
कब निभता है जीवन भर
कितना छल फैला है बाहर
कुछ तो टूट रहा है अंदर
कोई डगर न सीधी सादी
सब कुछ है उलझा उलझा सा
बिन घोटालों के जीवन का
आसार न कोई इधर उधर
कितना छल फैला है बाहर
कुछ तो टूट रहा है अंदर
सपने अपने रिश्ते नाते
इनका कोई आधार नही
किसको माने किसको पूजें
और भरोसा हो तो किसपर
कितना छल फैला है बाहर
कुछ तो टूट रहा है अंदर
प्रेम समर्पण कसमें वादे
भोला मन या नेक इरादे
अपनों के आघातों से ही
जाते है सब ये भाव बिखर
कितना छल फैला है बाहर
कुछ तो टूट रहा है अंदर
प्रीति सुराना
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