Tuesday 11 July 2017

दुर्बलताओं का दंड

''मानवी कब तक यूँ घर मे मुँह छुपाए बैठी रहोगी, आखिर कभी न कभी तो हालातों का सामना करना ही होगा" ये कहकर सुजाता लगभग खींचती हुई मानवी को कमरे से बाहर ले आई।
         बहुत ज़िद के बाद आज दोनों सहेलियां फिर साथ साथ कॉलेज आई थी। लगभग सभी की नजरें मानवी को चुभती हुई सी महसूस हो रही थी।
          अचानक न जाने कहाँ से उसमें अदम्य साहस पैदा हुआ और वह कॉलेज के ग्राउंड में ही खड़े होकर जोर से चिल्लाई "यहां आओ वो सभी लोग जो मुझे अजूबे की तरह घूर कर देख रहे हैं।"
          ''उस दिन भी तुम सब ही थे न जो एक गुंडे के डर से मेरी इज्ज़त से हो रहे खिलवाड़ को चुपचाप देखते रहे।''
       ''क्या सोचा था सबने मुझे मर जाना चाहिए था? एक लड़की होना दुर्बलता नहीं उस गुंडे की तरह वहशी दरिंदा होना मानसिक दुर्बलता है। क्या हर बार निर्भया ही मारी जाएगी?"
         "वैसे भी मैंने कौन सा गुनाह किया आत्मरक्षा के लिए एक धक्का ही दुर्बलता का दंड बन गया।"
           सुई पटक सन्नाटे में सिर्फ इस साहसी निर्भया की सैंडल की आवाज़ गूंज रही थी। मानवी अपनी क्लास की ओर बढ़ गई थी।

प्रीति सुराना

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