कुछ बड़ा बना मन के मकान को,
साथ साथ सुन आरति अजान को।
नाम को कभी कोई न काम कर,
ये धरा पुकारे है उत्थान को।
रोग तो बताते हैं मरीज भी,
ढूंढ तू नये कोई निदान को।
कौन सा सही है ये पता नही,
ठीक मान लें कैसे निशान को।
संविधान टूटे या बने नया,
तू निभा सही है उस विधान को।
काल पर नही कोई यकीन है,
मार ही न डाले फिर किसान को।
तीर तो लिए तैयार लोग है,
रोक ले अभी भी तू कमान को।
रात बीतने को देर है अभी,
तू बुला सलोने से विहान को।
बोलना मना है कुछ भला बुरा,
मनुज ने जना है जिस विज्ञान को।
प्रीति सुराना
0 comments:
Post a Comment