Thursday 8 June 2017

*मौन:- समस्या या समाधान??*

मौन क्या है?

*एक कठिन साधना, शक्ति, भक्ति और स्वाध्याय।*
*विवादों को विकृत और स्थगित करने का केवल एक तात्कालिक विकल्प या समाधान।*
*कठिन परिस्थितियों में पलायन रूपी दुर्बलता या समस्या।*
*प्रेम में स्वीकृति और विषमता में विवशता।*
*अज्ञानियों की ताकत और ज्ञानियों का विवेक।*
*भावनात्मक पहलुओं में संवेदनहीनता का प्रतीक।*
       वैसे मेरे लिए मौन पर लिखना बहुत कठिन लगता होगा क्योंकि *वाचाल / बातूनी वाली छवि से परे अंतस का मौन किसने देखा??*      
       जैसा कि मैं हर बार अपनी बात रखने से पहले ही *क्षमायाचना* कर लेती हूं कि ये सिर्फ मेरी सोच की *अभिव्यक्ति* है। तन, मन, धन और जन का प्रभाव परिस्थितियों पर और परिस्थितियों का प्रभाव विचारों पर होता है। सबकी परिस्थितियां अलग होती है अतः मेरी बातों से सबकी सहमति अनिवार्य नही। मैं अपनी बात उपरोक्त बिंदुओं पर केंद्रित करूँगी।
मौन मेरे लिए एक *कठिन साधना* है क्योंकि बातूनी हूँ, भावुक हूँ, संवेदनशील हूँ।
मौन मेरे लिए वो *शक्ति* है जिससे मैं परिस्थितियों का सामना करने के लिए खुद को तैयार करती हूं अपना मनोबल संचित करती हूं।
मौन मेरे लिए *भक्ति* या अपने इष्ट या आराध्य से सीधे संवाद का *अवसर* है।
मौन मेरे लिए वो *कालखंड* है जिसमें दूसरों से खुद को अलग रखकर स्वाध्याय, आत्मचिंतन, आत्मावलोकन कर सकूं। चिंता और चिंतन दोनों ही इस मौन काल मे मनमस्तिष्क को सक्रिय रखता है। जिसका प्रभाव जीवन में सकारात्मक या नकारात्मक पड़ता जरूर है।
मैने जिम्मदारियों से भागना सीखा नही।
सही को सही साबित करने तक बहस पर आमादा रहती हूं।
गलत होने पर क्षमायाचना तक तत्पर रहती हूं।
जिम्मेदारियों के लिए जवाबदेही अपना कर्तव्य मानती हूं।
      लेकिन इनमे से कोई भी कार्य मेरे लिए मौन रहकर संभव नहीं। कई बार मुझे सलाह मिलती है चुप रहकर भी विरोध किया जा सकता है। मौन रहकर भी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया जा सकता है। पर मेरी वाचालता ऐसे में कठिनाई बन जाती है इसलिए मुझे लगता है मौन बहुत कठिन है।
       कई बार मौन हो जाना तात्कालिक विवादों से बचने का एकमात्र *विकल्प* या *उपाय* हो जाता है क्योंकि कोई बात अति प्रतिक्रिया से बिगड़ जाए, गुस्से में कही बात मान-सम्मान और रिश्तों को क्षतविक्षत कर दे उससे बेहतर *समाधान* होता है उस वक्त चुप हो जाना और सोचना की इस समस्या से कैसे बाहर आए।
             दो लोगों के बीच संवादहीनता हमेशा ग्रंथियों को जन्म देती है क्योंकि हम एक दूसरे के मन की जाने बिना अपनी ही सोच से ताने बाने बुनने लगते हैं और इससे मन मुटाव या दूरियां बढ़ती बढ़ती है। तुरंत में झगड़े से बचने के लिए चुप हो जाना अलग बात है पर समस्या तब होती है जब बातचीत करके मसले को सुलझाने या समझने समझाने की बजाय मौन या संवादहीनता कायम रहे।
            ऐसे में रिश्ता घुट घुट कर दम तोड़ देता है या विकृत रूप ले लेता है। इसलिए बेहतर है बात हो। भले ही लड़कर झगड़कर लेकिन मन की बातों का सम्प्रेषण हो और मौन को *आवरण* बनाकर परिस्थितियों को बिगाड़ने की बजाय विवाद का सामना करके रिश्तों को बचाया जाए।
        कई बार मैंने महसूस किया है हम अपनी गलती होने पर सवालों के जवाब से बचने के लिए मौन धर लेते हैं पर क्या ये सही है कि जिन बातों के लिए हम जिम्मेदार हैं उन बातों और हालातों में जवाबदेही से *पलायन* का या अपनी *दुर्बलता* का आवरण मौन को बना लें। क्या ये मौन हमारे मन को भी चुप करा देगा?
           प्रेम में मौन की *स्वीकृति* गुदगुदाती है पर अपनो का रूठने पर बिना मनाए मौन हो जाना तकलीफ देता है।
           कई बार अपनो को तकलीफ न हो इसलिए भी मौन *विवशता* बन जाता है और इस मौन में हम अपना दर्द छुपा लेते हैं। अपनी *बकबक के पीछे कोई दर्द मौन ओढ़े टीसता रहता है* मन बहुत उद्दवेलित होता है और वो बेचैनी बहुत पीड़ादायक होती है जब *अंतस की बातों पर मौन का पहरा* हो। पर हमें अपने मनोबल को समेटना होता है दोहरी भूमिका में कि अपना दर्द भी सह सकें और हंस कर चुप भी सकें। सच बहुत मुश्किल होता हैं बोलकर भी चुप रहना।
            कहा जाता है *अज्ञानी का बल मौन* क्योंकि बोलकर अज्ञानता का प्रदर्शन करने से अच्छा है चुप रहना। और *ज्ञानी का विवेक* है मौन क्योंकि *कब क्या कैसे किससे कितना बोलना शेष मौन रहना* ये समझदारों का ही सामर्थ्य है।
            प्रेम में भावों की अभिव्यक्ति सुखद अनुभूति दे सकती है तब मौन *संवेदनहीनता का प्रतीक* है। प्रेम की स्वीकारोक्ति, किसी अपने की परवाह और दर्द में साथ होने को शब्दों में महसूस करवाना बहुत मायने रखता है। किसी अपने के साथ *मैं हूं 'ना'* की तरह मौन रहने की बजाय *"मैं हूं ना"* कहकर देखिए मेरे लिए मौन से ज्यादा ताज़गी जरा से संवाद से महसूस होगी।

*रे मन!!!*
*मौन को आवरण बना कर, यूँ रिश्तों को नीरस न कर,*
*लड़-झगड़, जान-समझ, रिश्तों को जी ले जी भर कर,*
*दर्द किसे नही है दुनिया में, बांट जरा बैठकर अपनों के साथ,*
*मौन को अपना समर्पण बना, अहं बनाने की गलती न कर।*

प्रीति सुराना

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