Tuesday 6 June 2017

पीड़ा की अगवानी

*पीड़ा की अगवानी*

'मेरे तुम'   
           तुम्हारी आदत कुछ इस कदर हो गई है कि जीने का अहसास ही नही होता तुम्हारे बगैर। लेकिन तुम्हारा मौन दर्द नही मृत्युदंड सा महसूस होता है।
         बिना किसी अपराध बार-बार तुम्हारी दी मृत्युदंड सी सज़ा नही मंजूर मुझे। बोलकर दर्द देते तो लड़कर, झगड़कर, रोकर, जवाब देकर फिर सामान्य हो जाती पर ये अबोलापन असहनीय है मेरे लिए।
          मुझसे न बोलकर तुम दूसरों से ज्यादा सहज हो तो जाओ आज किया तुम्हे आज़ाद अपनी आदत से, अपनी जरूरत से, अपनी बातों और बातों के दर्द से।
          खुश रहो क्योंकि ये निर्णय मैने अपने लिए नही तुम्हारी खुशी के लिए लिया है। ये जानते हुए भी कि बरसों की आदतें, जरूरतें और प्रेम एकदम से मिटाना उतना ही पीड़ादायक होता है जितना एक नशे के आदी इंसान के हाथ से नशीली चीज छीनकर हमेशा के लिये दूर कर देना।
                                       तुम्हारी???

       इस खत के बाद मीरा ने अपना सारा सामान आउटहाउस में रख दिया। अब इस घर से उसका नाता सिर्फ उस कर्मचारी के कर्तव्यनिर्वाह जितना ही है जिसका घर के मालिक से सामना नही होता। रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत भी भला कितनी??
          कर लिया मजबूर भी और मजबूत भी उसने खुद को आने वाली "पीड़ा की अगवानी" करने के लिए क्योंकि अकेले ही तय करना है पीड़ा का ये अंतिम सफर।

प्रीति सुराना

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