Thursday 18 May 2017

"भारत का असंतुष्ट युवा"


"भारत का असंतुष्ट युवा"
         आज चर्चा का विषय चला है भारत का युवा असंतुष्ट क्यों है? इस चर्चा पर अपने विचार रखने से पहले एक सवाल क्या भारत मे केवल युवा असंतुष्ट है? दरअसल संतुष्टि का सीधा संबंध हमारी अपेक्षाओं और जरूरतों से है और हर वो इंसान असंतुष्ट है जिसकी अपेक्षाएं पूरी नही होती।
    अब बात करें युवा की क्योंकि विषय युवा पर केंद्रित है। एक युवा जो अपने भविष्य को लेकर सपने बुन रहा है, अपने कदम बढ़ाने के लिए दिशा चुन रहा है वो कई तरह के असमंजस के दौर से गुजरता है। अगर इस बात को कुछ प्रमुख बिंदुओं में बांटा जाए तो युवा को प्रभावित करने वाले परिवेश में मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र ही प्रमुख है। अब इन बिंदुओं पर क्रमशः विचार करें।

मानसिक-शारीरिक-पारिवारिक :-
        एक युवा जिसे परिवार हमेशा बच्चा मानता है, अपना बचपन पालकों द्वारा प्रदत्त सुविधाओं और निर्देशन में जीता आया है। भारतीय परिवारों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि हम परंपराओं से जकड़े हुए तो हैं किंतु बच्चे की शिक्षा पाश्चात्य पद्धति में करवाना स्टेटस सिम्बल मानते है । घर पर आस्था और परंपरा के नाम पर जो बच्चा रूढ़िवादिता को समझे बिना केवल पालकों के दबाव में मानता है घर से निकलते ही उसे झट से अपने खुले माहौल में संतुलन बनाना पड़ता है क्योंकि ऐसा नही किया तो अपने हमउम्र साथियों के बीच पिछड़ा हुआ कहलाएगा, पर घर मे यही खुलापन उसके बिगड़ने के संकेत कहलाएगा । शारीरिक बदलाव, मानसिक अस्थिरता और पारिवारिक परिवेश यहां से युवा दोहरे दबाव में जीना शुरू करता है युवा जिसका परिणाम कुछ विद्रोही होकर गलत दिशा चुन लेते हैं कुछ अवसाद का शिकार होकर गलत कदम उठा लेते हैं।

क्या इसका कोई हल या बीच का रास्ता है??
विचार करें तो पाएंगे
परिवार को ही युवा होते बच्चे को समझकर समाज का संतुष्ट सदस्य बनाने के लिए सहयोग करना होगा।माता पिता का मित्रवत व्यवहार इसका सबसे बड़ा उपचार है।
जो हमने नही किया वो हमारे बच्चे न करें इस मानसिकता को बदलना होगा।। 
          आज का माहौल जिसमें हम खुद बच्चे को 8 घंटे के लिए छोड़ आते हैं वो इतना आकर्षक होता है कि घर में बिताए नींद के अलावा बचे 8 घंटे बढ़ते बच्चे के लिए मुश्किल होते हैं। कड़े अनुशासन से घर को सैनिक स्कूल या जेल न बनाते हुए अभिभावकों को बच्चों का मित्र बनकर उनके साथ उठना बैठना और उनके माहौल में शामिल होकर उन्हें समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके दो फायदे होंगे हम बच्चे के करीब रहेंगे, हम खुद भी वर्तमान परिवेश को सीख और समझ पाएंगे और तब ही आप एक दोस्त की तरह सही और गलत का मार्गदर्शन दे पाएंगे। बच्चा घर मे रहकर हमारे आदेशानुसार घर के नियमों को सीखे समझे ये चाहते हैं तो हम भी तो उसकी अपनी नई जीवनशैली पहनावा, खानपान, रुचि, पसंद और सोच को समझें। जितना एक युवा होते बच्चे के साथ खुद की विचारधारा को जोड़ेंगे उतना ही खुद उससे जुड़ेंगे और तब आसान होगा उसे सही और गलत को समझाना। उसके असंतुष्ट मन को संभालना।

आइये अब विचारें एक दूसरा ही पहलू-

शैक्षणिक-सामाजिक-राजनैतिक :-
     आज एक युवा से पूछिए जीवन शिक्षा का काल कितना? वो नही बता पाएगा क्योंकि व्यवहारिक शिक्षा जो घर समाज और हालात के साथ साथ जीवन भर चलती है पर वो शिक्षा जिसे आम भाषा मे पढ़ाई कहा जाता है, वो पढ़ाई जो भारी भरकम बस्तों से शुरू होकर युवा होते बच्चे की जेब मे डिजिटल होकर घुस चुकी है वो असीमित है।     
      कल्पना करिए दो रास्तों में एक चुनना हमारे लिए मुश्किल होता है तब हज़ारों लाखों विकल्पों में चुनना एक युवा जिसे उसमे अपना भविष्य तलाशना है कैसे आसान हो सकता है?? स्वाभाविक है शिक्षा के विस्तार ने युवाओं में असंतुष्टि का भी विस्तार किया है।
      सामाजिक परिवेश की बात करें तो पढ़ा लिखा युवा छोटे मोटे काम करना नही चाहता और बड़े कामों के लिए रिश्वत, डोनेशन और कई नए नए नामों से लगने वाली मोटी रकम की व्यवस्था न हो पाए तो कर नही पाता। स्टेटस मेंटेन करना आज के समाज की पहली जरूरत जिसे मेंटन करते करते अपना मूलरूप ही भूल जाता है। इंटरनेट, सोशल मीडिया, मोबाइल जैसी सुविधाओं ने बहुत हद तक गूगल मैप की तरह हर समस्या के निदान का रास्ता बताया है पर वक़्त, हालात और परिस्थितियां सबकी अलग अलग होती है ऐसे में एक ही समस्या के एक निदान व्यवहारिक नही, और जब ये भी भ्रम टूटता है तब तक सिवाय असन्तोष, निराशा और वैचारिक विद्रोह के और कुछ भी नही बचता।
       उस पर सबसे बड़ी समस्या भारत का राजनैतिक माहौल, आरक्षण की नीतियां और कानूनी दांवपेंच। कुछ भी करे व्यापार या नौकरी कोई भी सुरक्षित भविष्य नही क्योंकि सत्ता बदली तो नीतियों के साथ जाने क्या क्या बदल जाएगा।

क्या इसका कोई हल है??

सिर्फ एक उपाय देश की एकता, विकास और बदलाव की केवल बातें न हो।
शुरुआत अपने आप से हो अपने परिवार से हो।
अभिभावक अपने युवा होते बच्चों का हाथ थाम कर चले पर बढ़ते कदम न रोके।
दिशाएं बताएं किसी रास्ते पर चलने की जबरदस्ती न करें।
लहजा आदेशात्मक न होकर मित्रवत हो।
गलती पर थप्पड़ मारने के हक़ का इस्तेमाल करें तो कमजोर पलों में गले लगाना न भूलें।
सुरक्षा कवच बनें बेड़ियां नही।
         और युवा हमेशा ये याद रखें कि उनके भविष्य का आधार उनका  भूतकाल है यानि उनकी परंपराएं उनकी संस्कृति जिसे कभी भी नकारा नही जा सकता, भारतीयता की पहचान भारत की संस्कृति है जिससे जुड़े बिना न युवा का आज है न आने वाला कल इसलिए उड़ान कितनी भी ऊंची हो जमीन से संपर्क बनाए रखें ।
         संतुष्टि के भाव किसी भी उम्र या परिवेश में इतनी आसान नही क्योंकि न अपेक्षाएं खत्म होती न जरूरतें दोनों ही हमारे बाल और नाखून की तरह है जितने भी छोटे करो फिर बढ़ने लगते हैं।
          ये विचार मेरे व्यक्तिगत सोच का परिणाम है जरूरी नही सभी सहमत हों क्योंकि अपवाद भी होते है और साथ साथ हाल और हालात भी दिशा और दशा बदलने में समर्थ होते हैं।
          युवा पीढ़ी को ही अपने वर्तमान के साथ  भूत और भविष्य का संतुलन बनाना पड़ता है, ये हर युवा समझे, हर बुजुर्ग साथ दे और समझाए ताकि आने वाली पीढ़ी असंतोष का दंश कम से कम वहन करे।

"सुन युवा तू सबके कल से जुड़ा है
हो सुरक्षित तू जिस मोड़ मुड़ा है
तुझ पर निर्भर आने वाला कल है
पर तुझसे अपनों का आज जुड़ा है"

सभी का कल-आज-कल शुभ और संतुष्ट हो इन्ही भावनाओं के साथ शेष फिर कभी,...

प्रीति सुराना

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