हां!
जब भी होती है
कोई पीड़ा मुझे
तुम्हारे व्यवहार से,..
तुम अकसर कहते हो
तुम तो मेरी अपनी हो,..
तुम हमेशा वही करते हो
जो दूसरों को अच्छा लगता है,
बहुत अच्छी है
तुम्हारी भावनाएं,
जो खयाल रखती है
दूसरों की भावनाओं का,
पर क्या
तुम्हारे अपनों में होना
कोई *अपराध* है मेरा,..
जिसकी सज़ा हर बार
मेरी भावनाओं की अवहेलना,..??
कभी कभी
ये प्रश्न
बहुत विचलित करता है मन को,..
कहीं तुम्हारे अपनों में होने से
अधिक अपनापन
तुमसे पराया होने में तो नही,...?
जब-जब
उत्तर ढूंढती हूँ
इन प्रश्नों का
तब-तब
मन मे भाव
सिर्फ एक
"प्रेम में समर्पण ही प्रेम की संपूर्णता"
सुनो!!!
तुम्हारे प्रेम की तुम जानो
मेरा प्रेम अधूरा कभी नही होगा,..!!!
प्रीति सुराना
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