Friday 5 May 2017

*जन्मघुट्टी*

हाँ!
उसे
विश्वास है मुझपर
या ये कहूँ
अन्धविश्वास है
उसके दिये दर्द
घूंट घूंट पीकर
बून्द बून्द आसुओं के साथ
मंद मंद मुस्कान
होठों पर रखकर
दुनिया को दिखाती रहूंगी
उसके प्रति अपना असीम प्रेम,..
पर सच कहूं
मन करता है कभी कभी
तोड़ देने को
इस अंधविश्वास को
और चीख चीख कर
पूछ लूं एक बार
क्या तुम्हारे प्रेम में
मेरे समर्पण का कोई मोल है?
पूछ लूं एक बार
क्या मुझ पर अधिकार जताना ही
तुम्हारा प्रेम है
या तुमपर भी मेरा कोई अधिकार है
पूछ लूं एक बार
क्या समर्पित होने का दायित्व
सिर्फ मेरा है
या प्रेम में समर्पण दोनों का होना जरूरी है
पर जानती हूं
नही कर सकूँगी
सांसों और धड़कनों के चलते
मैं ये *"अपराध"*
स्त्री जो हूँ
संस्कार, नियति, प्रेम, दायित्व समर्पण
ये कुछ शब्द जन्म से सुनती आई हूं
जन्मघुट्टी में संस्कार के नाम पर पिलाई गई
ये भावनाएं रगों में दौड़ रही हैं,..
एक बात और पूछ लूं????
जन्मघुट्टी तो तुम्हे भी पिलाई गई होगी ना??
क्या मिला था उसमें?
संस्कार, नियति, पुरुषत्व का अहं, अधिकार
और
और
और,....

प्रीति सुराना

0 comments:

Post a Comment