Thursday, 25 May 2017

*किसी से हुई पहली लड़ाई या मनमुटाव : कारण और निवारण*

आज अंतरा में गद्य का शीर्षक

*किसी से हुई पहली लड़ाई या मनमुटाव : कारण और निवारण*

सबसे पहली बात मेरे अपने जिनसे मेरा सच्चा रिश्ता है आभासी नही वो ये जानते हैं मैं स्वभाव से बहुत तेज़, गुस्से वाली और ज़िद की पक्की हूँ। जो बहुत ज्यादा करीब हैं वो ये भी कहते हैं तुम्हे बस लड़ना होता है मैं नही तो वो, वो नही तो कोई और,...। फिर पहली बात कब लड़ी ये याद रखना संभव नही क्योंकि *बुरे पलों की गांठ बांधी नही कभी, अच्छे लम्हों की तारीखें याद रहती है क्योंकि वो मेरी संचित ऊर्जा का स्रोत होती हैं जो निराशा के पलों में या किसी असहनीय दर्द को सहने में सहायक होती हैं।* पर यकीनन मेरे अपने ये भी जानते हैं कि न में बेवजह किसी से न संवाद रखती न किसी से विवाद। जब भी किसी से लड़ी हूँ किसी सही बात को सही साबित करने तक क्योंकि शुरू से गलत को स्वीकार लेना स्वभाव में नही रहा। गलत सहकर मौन वहीं धरा जब कोई अपनेपन की उस श्रेणी तक नहीं शामिल हुआ जो मेरे मन तक पहुंचे। मेरा सीधा सा फंडा जो मेरा है उसी पर मेरा अधिकार है जो दूसरे हैं उनसे किसी बात पर उलझ तो सकते है पर जो मन से जुड़ा ही नही तो मनमुटाव कैसा? वो अपने रास्ते हम अपने रास्ते।
        फ़ेसबुक और व्हाट्सअप पर मेरा पूरा परिवार है (मायका और ससुराल), मेरे स्कूल के मित्र हैं, साहित्यिक मित्र हैं, मेरे नगर के लोग हैं, इस आभासी दुनिया से मिले उंगलियों पर गिने जा सकने वाले चंद रिश्ते जो मेरी पूंजी हैं। और सभी जानते हैं कि मैं कब लड़ती हूँ किनसे लड़ती हूँ। जिनसे संवाद है विवाद भी उन्ही से है और अधिकार वहीं जहां अपनत्व । लगभग 5000 लोगों की मित्र हूँ, 13000 फॉलोवर्स हैं जो गवाह हैं कि संवाद या इनबॉक्स चैटिंग किसी अपरिचित से साहित्य के अलावा hi/hello का जवाब भी नही , किसी साहित्यिक गतिविधि से जुड़ी किसी भी बात का सीमित शब्दों में जवाब के अलावा में अपने रिश्तेदारों से भी चैटिंग पर बात नही करती जब तक बहुत आवश्यक न हो।
*मेरी बात उन्ही से होती है जिनसे सीधे संवाद का अधिकार हो* खासकर वो जो वास्तविक जिंदगी में मुझसे मिले हों अजनबियों से एक फ़ासला हमेशा बनाए रखा ।
      जब मन मिले तो विचारों के आदान प्रदान हो, और विचार जाने तो मतभेद होने भी स्वाभाविक है पर *मनभेद बहुत पीड़ादायक अवस्था* जो कभी किसी से मेरी तरफ से नही होता। यकीन मानिए गुस्से में कही हर बात का मुझे सबसे ज्यादा दुख होता है, कोई अपना मुझसे नाराज रहे ये बर्दाश्त के बाहर है। भले ही बेवजह गलती मानकर माफी मांगनी पड़ी हो पर अबोलापन मुझसे कभी सहन नही हुआ। पारिवारिक रिश्तों में भी कई बार मतभेद होता है कोई मुझे ये समझाए कि जाने दे मन पर मत ले तब भी मेरा जवाब यही होता है कि नही लूंगी मन पर जिस दिन मान लूंगी कि वे पराए हैं। *जब तक अपने हैं हर बात का मन पर गहरा असर होगा।*
         मैं गुस्सा करती हूं उसका सबसे ज्यादा असर मुझपर होता है। मेरी शारीरिक मानसिक वेदनाओं ने मुझे चिड़चिड़ा बना दिया है पर सच मानिए मेरी लड़ाई सिर्फ मुझसे,... । *मैं कोशिश करती हूं मोह के धागों को लपेट लूं अपने मन के चरखे पर। जितना खुलेंगे उतना उलझेंगे और जितना सुलझाने की कोशिश करो उतना ही टूटने का डर,.. उतना ही दर्द।* मतभेदों से परे मनभेद किसी से नही, दुश्मनी किसी से नही। अपनों का बुरा तो दूर की बात कभी किसी पराए को भी जानबूझ कर नुकसान पहुंचाने की भावना मन मे नहीं आने दी। अनजाने में  किसी को ठेस लगाई भी तो अंतर्मन हमेशा रोया है।
        किसी खरी खरी बात के लिए जब जब अपनों से लड़ती हूँ, यहां तक कि बच्चों के भले के लिए बच्चों को भी डांटा है तो *अंतरद्वंद सहती हूँ, मंथन और उद्वेलन की पीड़ा सहती हूँ।* कभी किसी को जाने या अनजाने दुख पहुंचाकर खुश रहना कभी भी नही आया। सबसे बड़ा दुख ये सब कुछ सिर्फ अपनो के साथ, नितांत अपनों से झगड़ कर खुश रहना सीख ही नही पाई।
          *ज्यादा परिचय के बीच कम रिश्ते रखना तो आया मुझे पर रिश्तों के बीच निर्लिप्त रहना नही सीख पाई* क्योंकि सच का हारना नही सह पाती। पर जानती हूं अपने ही शरीर के कई हिस्सों जैसे दिल दिमाग पर नियंत्रण रखना हमारे बस में नही होता तो खुद जुड़े रिश्तों को अपनी सोच से नियंत्रित करना असंभव है और इसी बात को महसूस करते हुए हर बार शुरू होती है खुद से खुद की वो लड़ाई जो आज तक जारी है। *न खुद हारी न मेरा 'मैं' हारा।*
     *कारण मोह* निवारण जिस दिन मिल सका और बताने की हालत में रही जरूर बताऊंगी। फिलहाल जिनसे औपचारिक परिचय है उनसे क्षमायाचना की संवाद नही किया ताकि विवाद कभी न हो। जो अपने हैं उनसे क्षमायाचना की उनपर अपनी सोच लादने की कोशिश की और कभी भी पीड़ा पहुँचाई हो तो दिल से शर्मिंदा हूँ और मतभेदों के चलते मन से दूर मत करियेगा यही याचना है।
       *मेरी लड़ाई सिर्फ मुझसे*, मेरी दुश्मनी भी सिर्फ मुझसे और मनमुटाव भी सिर्फ मेरे मन से बाकी सब कुछ सिर्फ तात्कालिक प्रतिक्रिया जो गलत लगा वो कहकर भूल गई। नही भूल पाती तो सिर्फ अंतर्द्वंद, और ये भी जानती हूं मोह के फंदे ही कारण जो रहेंगे अंतिम सांस तक,.. यानि *निवारण अंतिम सांस* क्योंकि दुनिया मे रहकर पूर्णतः विरक्त होना मेरे लिए संभव नही।

*सतत एक चिंतन*

अंतर्द्वंद इस मन का
मुझे जाने न दें आगे
जितना रोकूं खुद को
मन उतना ही भागे।
अपनों से ही उलझे
अपनपना भी मांगे
कोई जतन बतलाओ
जो अंतर्मन ये जागे।
न बैर भाव मैं बांधूं
न दाग द्वेष का लागे
तोड़ सकूं बस इक दिन
ये मोह-मोह के धागे,...

प्रीति सुराना

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