तीखी सी टीस
जो किसी से भी
साझा न की जा सके
और
छुपाते छुपाते
ले लेती है
एक गंभीर रोग का रूप
फिर जांच-परीक्षण
शरीर पर बार बार
*कांटे* सी चुभती सुई की नोंक
दवाओं से शरीर में होने वाली जलन
जुबान पर मानों उढेल दिया हो
मनभर *खार*
कैमरा, रेडिएशन लाइट्स,
दर्द के पल पल की रिकार्डिंग
कम होती क्षमताएं
बिखरते हुए सपने
क्षीण होता तन
टूटता हुआ मन
लुटता हुआ धन
अपनी ही आंखों के सामने
मिटता हुआ एक इंसान,..
हाँ
पहले होती थी दहशत
सुनकर नाम भी बीमारी का,..
लेकिन
अब चारों तरफ फैले दिखते हैं
मनोरोगियों, अपराधियों, बलात्कारियों, भष्टाचारियों के हाथों
रोज मरते रिश्ते,
रिसते हुए नासूर,
तड़पती हुई भावनाएं,
जिंदा लाश जैसी जिंदगियां
और इन सबको देखते हुए लगता है
समाज मे फैली विकृतियों के विषाणु
कैंसर के कीड़ों से भी ज्यादा
पीड़ादायक है,..
बड़े बड़े विशेषज्ञों ने किए प्रयास
ढूंढने का इलाज़ वैचारिक विकृतियों का,..
अंततः
आसान लगा शरीर के कैंसर का इलाज ढूंढना,..
सुना है
कैंसर अब लाइलाज़ नही है,...
लाख तकलीफों के बाद भी
ठीक होने की तमाम संभावनाएं जिंदा हैं,...
प्रीति सुराना
Be aware for breast cancer
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