Monday, 22 May 2017

दर्पण ढूंढ रही

इलज़ाम लगाते औरों पर
है ऐब बहुत सबके भीतर
कबसे वो दर्पण ढूंढ रही
झांक सके जो मन के अंदर

स्वार्थ निहित जो जिसमें मेरा
संबंध नही ऐसे रखती
जो संबंध मिले किसमत से
उनसे द्वंद नहीं रखती
मुझको फर्क नही पड़ता है
कैसा माहौल बना बाहर

कबसे वो दर्पण ढूंढ रही
झांक सके जो मन के अंदर

आगे बढ़ते लोगों को मैं
पीछे न कभी खींचा करती
साथ जिसे चलना हो मेरे
मैं हाथ नहीं छोड़ा करती
मेरा ही हाथ पकड़ मुझको
कितनों ने ही मारी ठोकर

कबसे वो दर्पण ढूंढ रही
झांक सके जो मन के अंदर

लोग बहुत देखे हैं ऐसे
जो परखें दूजों के लेखे
लोग कहीं ऐसे भी हो जो
खुद के करमों को भी देखें
कोई जगह बनी हो ऐसी
ढूंढो ऐसा धरती *अंबर*

कबसे वो दर्पण ढूंढ रही
झांक सके जो मन के अंदर

प्रीति सुराना

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