हां! *मन की चुभन* बहुत तकलीफ देती है, टीसता है भीतर ही भीतर कुछ बहुत पैना नश्तर सा जो भावनाओं को लहूलुहान करने की क्षमता रखता है। दरकता है भीतर ही भीतर मानो धरती के नीचे कुछ दरक रहा जो भूकंप का कारण बनता है,.. पर क्या, क्यों, कैसे?? क्या इस चुभन को मिटाने या कम करने का कोई तरीका कोई उपचार नहीं????
बैठी हूँ यही सोचती कबसे, क्रमशः लिखती गई कई बिंदु इस विषय पर।
*क्या है जो चुभता है मन को*
मुझे चुभता है अपने अस्तित्व का नकारा जाना।
मुझे चुभता है मेरे अस्तिवत पर किसी का हावी होना।
मुझे अपनों का पास होकर साथ न होना।
मुझे चुभता है जरुरत पड़ने पर थामे हुए हाथों का छूट जाना।
मुझे चुभता है जब शब्दों की जरुरत हो तभी संवादहीनता का पसर जाना।
मुझे चुभता है जब ख़ामोशी बिखराव को रोक सकती हो तब मुखरता से तिल का ताड़ बन जाना।
मुझे चुभता है किसी के लिए जरिया बनकर उपेक्षित होना।
मुझे चुभता है मेरी मदद करके जताया जाना।
मुझे चुभता है कहकर बिना जवाब सुने चले जाना।
मुझे चुभता है पूछने पर भी जवाब न दिया जाना।
दरअसल हमारे मन के विपरीत कुछ भी होना हमें चुभता है और ऐसी ही अनेकानेक अलग अलग परिस्थितियों में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू चुभते हैं।
*पर क्यों चुभते हैं*
इसलिए कि संबंधों में अपेक्षा स्वतःजनित है। इसलिए कि हम अपनी सहूलियतों को प्राथमिकता देते है।
इसलिए कि संबंधों में तन मन धन या जन से संबंधित कोई न कोई स्वार्थ अनिवार्यतः निहित होता है।
इसलिए कि हम स्वीकार नहीं पाते की परजीविता का गुण हममें भी अनुवांशिक है।
हम माने या न माने पर मानव का स्वभाव है कि परिवार समाज या समूह से जुड़ा होता ही है क्योंकि एकाकी जीवन मनुष्य की प्रकृति नहीं है।
*कैसे चुभता है???*
कभी कलह, कभी द्वेष, कभी विद्रोह, कभी एकाकीपन, कभी उत्तेजना, कभी वैमनस्यता कभी असफलता, कभी नकारात्मकता, कभी नैराश्य बनकर पीड़ादायक परिस्थितियों का निर्मित होकर सामने खड़े हो जाना ही चुभता हैं।
*इस चुभन को कम करने के उपचार*
अकसर इस चुभन को कम करने के लिए सलाह मिलती है,.. *अपेक्षा मत करो, स्वावलंबी बनो, आत्मविश्वास बनाए रखो, अपनी राह खुद बनाओ आदि इत्यादि,...*
आंशिक रूप से सहमत हूँ सभी सलाहों से और कोशिश भी करती हूँ अपेक्षाएं काम और आत्मनिर्भरता अधिक हो, आत्मविश्वास बरक़रार रहे, बने बनाए रास्तों की बजाय अपने रास्ते खुद बनाऊं। पर अकसर मैंने महसूस किया कि परिणामस्वरुप हम अपने लिए अकेलापन, विरोध और प्रतिद्वंदिता स्थापित करते चले जाते हैं। ऐसे ही किसी मौके पर मैंने खुद को थोड़ा बदला।
*सबसे पहले मैंने इस चुभन से ध्यान हटाने के लिए खुद को प्रतिपक्ष जिसे मैं चुभन की वजह मानती हूँ उसकी जगह पर खुद को रखकर सोचना शुरू किया।* यकीन मानिए हर बार मैंने परिणाम में कुछ बेहतर ही पाया। हम अकसर अपनी अपेक्षाओं के चलते ये भूल जाते हैं कि सामने वाला उसी परिस्थिति में क्या सोचता है, चाहता है, महसूस करता है। प्रकृति-परिस्थिति, अपेक्षा-उपेक्षा, अनुकूलता-प्रतिकूलता, सबकुछ सिर्फ हमारे व्यवहार के लिए कारक नहीं होते ये सभी के लिए उतने ही उत्तरदायी होते हैं। जैसे ही हम सामने रहकर अपनी बात का अवलोकन करते हैं सबसे पहला असर ये होता है कि हम त्वरित प्रतिक्रिया से बच जाते हैं और जल्दबाजी के दुष्परिणामों से भी। ऐसे में यदि हमारा पक्ष अधिक सही और मजबूत है तो प्रतिक्रिया के ठोस आधार बनाना का समय मिल जाता है और यदि हम प्रतिपक्ष से कमजोर हैं तो खुद को सुधारने और संभालने का अवसर मिल जाता है।
*दूसरी बात मैंने खुद को टटोलने की आदत डाली कि क्या इसी परिस्थिति में मैं जो अपेक्षा करती हूँ वही अपेक्षा यदि मुझसे की जाए तो मैं वही अपेक्षाएं पूरी कर पाऊँगी जो मुझे हैं।* सचमुच चमत्कारिक तरीके से अपने ही व्यवहार में बदलाव महसूस होता है ये सोचते ही।
*तीसरी बात हम अपनों में अपनापन ढूंढते हैं क्योंकि ये हमारा हक़ है तो सारी बातें अपनों से अपेक्षित होनी चाहिए जहां अपनापन न हो वहां किसी भी अपेक्षा की गुंजाईश नहीं होती।* लेकिन यदि किसी को अपना बनाना है तो पहले उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने की जरुरत है इससे बनने वाले रिश्ते अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत होंगे।
मैंने जो लिखा वो मेरी व्यक्तिगत सोच है जिसे मैंने *अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार* से प्रस्तुत किया लेकिन इसके लिए मेरी ये अपेक्षा कतई नहीं है कि जन मन इस बात से पूरी तरह सहमत हों। बस ये मेरे मन की चुभन को कम करने के लिए अपनाए गए तरीके हैं शायद बता देने से कभी किसी के काम आ जाएं,.. क्योंकि मैं जानती हूँ जब मन में कुछ चुभता है तो मन दुखता बहुत है। पर हर बार इसके लिए दूसरे ही जिम्मेदार नहीं होते।
*चुभन मन की हो जाए कम*
*कर लूँ मैं कुछ ऐसे जतन*
*वरना बिखर जाएंगे रिश्ते*
*फिर बिगड़ेंगे तन और मन* ,... प्रीति सुराना
0 comments:
Post a Comment