Wednesday 7 December 2016

*नज़रिया*

एक आलीशान मंच पर कवि सम्मलेन चल रहा था। सक्रिय साहित्यकार (केवल सक्रिय दक्षता का कोई दावा नहीं) होने के नाते कार्यक्रम में अतिथियों के साथ सुनिता को भी अग्रिम पंक्ति में बैठने का मान मिला। कुल 6 कवियों के साथ एक कवयित्री मंच में विराजमान थी। कविसम्मेलन  शुरू हुआ। एक एक करके 3 कवियों का पाठ हुआ सभी के काव्यपाठ में एक बात कॉमन थी वो ये कि तीनों ही बीच बीच में श्रोताओं से हौसला अफज़ाई के लिए तालियों की मांग करते रहे। फीका सा माहौल था। फिर कवयित्री जी ने काव्यपाठ किया। छींटाकशी और कहकहों के साथ कवयित्री जी ने रचनाएं सुनाई।उसके बाद फिर 5वें कवि की बारी आई तब हुआ यूं की जैसे ही कड़वे कड़वे सच के गोले उन्होंने श्रोताओं पर दागे कुछ निकल भागे कुछ ने तानों से और गालियों से और कुछ ने तालियों से प्रतिक्रिया दी।  वंस मोर की भी डिमांड आई लगभग 40 मिनट लगातार काव्यपाठ के बाद जब कवि महोदय ने स्थान ग्रहण किया तब 6वें कवि और सूत्रधार के काव्यपाठ फिर पूर्ववत तालियों की मांग के साथ पूरे हुए। अंत में अतिथियों के साथ भोजन करते हुए सुनिता 5वें नंबर वाले कवि महोदय से पूछा कि पूरा कवि सम्मलेन कवयित्री के श्रृंगार के बाद आपके अंगार ने ही जीत लिया। कवयित्रियों को आदत हो जाती है उस माहौल की कि सामने बैठे लोगों की बातों को दरकिनारकर अपना कविधर्म निभाएं पर आप इतनी अलोचनात्मक टिप्पणियों के बाद भी 40 मिनट तक पढ़ गए ऐसा क्यों?
उन्होंने कहा सौंदर्य के दम पर वाहवाही श्रृंगार का सद्भाग्य है पर अन्य 5 कवियों को ये कहना पड़ा ताली बजाओ, क्योंकि किसीने उनकी बात को सरसता से सुना नहीं। पर मुझे शुरू करते ही गलियां और आलोचना मिलनी शुरू हुई यानि सोता हुआ श्रोता जाग उठा। मेरी रचनाएं सुनकर भड़कने और आलोचनात्मक प्रतिक्रिया के बाद भी जिन्हें रुकना था वो मेरी बात से सहमत लोगो के साथ बैठकर सुनते रहे। इसका अर्थ ये की कम से कम सबने सुना तो सही। बस यही आलोचना मेरे लिए वो शक्ति बनी की मैं बोलता चला गया और सबसे बड़ा फायदा ये की उससे मेरी कमियां पता चली जो मुझे और बेहतर प्रयास के लिए प्रेरित करेगी।
इतना सुनते ही गज़ब का आत्मविश्वास सुनिता के भीतर जागा उसकी गतिविधियों पर आलोचनात्मक *नजरिया* रखने वाले जो लोग उसे अपने दुश्मन से लगते थे वही आज पथ प्रदर्शक से महसूस होते हैं।
आज सुनिता घर आई थी अपनी नई किताब के विमोचन का आमंत्रण पत्र देने उसने मुझसे अपने सबसे बड़े आलोचक श्यामलाल जी का पता पूछते हुए कहा उनकी आलोचना ही इस किताब का आधार है अतः उनका आभार व्यक्त करके उन्हें आमंत्रित करना चाहती हूँ।
आज सुनिता के कदमों ने निराशा की लड़खड़ाहट नहीं दिखी बल्कि उसकी मुस्कान में आत्मविश्वास नज़र आया।

*सकारात्मक नजरिया जादू की छड़ी होता है न???*

प्रीति सुराना

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