Monday 17 October 2016

थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,..

हर कदम पर साजिशों से बचती हूं,
थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,...।

हर दौर में मिलती नयी चुनौती है,
हर पल में कठिन परीक्षा होती है,
डगमगाते हैं कदम डरता है मन
पर हौसला अपना संभाले रखती हूं,
थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,
हर कदम पर साजिशों से बचती हूं,..।

तोड़ने की कोशिश वक्त करता है,
घात हर बार कोई अपना करता है,
ये दुनिया बदलें पल पल अपने रंग
पर नीयत अपनी मैं साफ रखती हूं,
थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,
हर कदम पर साजिशों से बचती हूं,...।

जाने कितनी बार बन के ढहती हूं,
थपेड़े हालात के कितने सहती हूं,
भावनाओं के ज्वार भी तो आते है
पर भरोसा अपने हुनर पर रखती हूं,
थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,
हर कदम पर साजिशों से बचती हूं,..।

जानती हूं भ्रम है सारे रिश्ते नाते,
द्वेष मन में पालकर राग दिखलाते,
आंसुओं को घूंट घूंट पी कर भी
होठों पर मीठी सी मुस्कान रखती हूं,
थोड़ा थोड़ा रोज खुद को रचती हूं,
हर कदम पर साजिशों से बचती हूं,... प्रीति सुराना

0 comments:

Post a Comment